।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशीवि.सं.२०७१बुधवार
आहार-शुद्धि



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒शरीरमें शक्ति कम होनेपर ज्यादा रोग होते हैं‒यह बात कहाँतक ठीक है ?

उत्तर‒इस विषयमें दो मत हैं‒आयुर्वेदका मत और धर्मशास्त्रका मत । आयुर्वेदकी दृष्टि शरीरपर ही रहती है;अतः वह ‘शरीरमें शक्ति कम होनेपर रोग ज्यादा पैदा होते हैं’ऐसा मानता है । परन्तु धर्मशास्त्रकी दृष्टि शुभ-अशुभ कर्मोंपर रहती हैअतः वह रोगोंके होनेमें पाप-कर्मोंको ही कारण मानता है ।

जब मनुष्योंके क्रियमाण- (कुपथ्यजन्य-) कर्म अथवा प्रारब्ध- (पाप-) कर्म अपना फल देनेके लिये आ जाते हैंतब कफवात और पित्त‒यें तीनों विकृत होकर रोगोंको पैदा करनेमें हेतु बन जाते हैं और तभी भूत-प्रेत भी शरीरमें प्रविष्ट होकर रोग पैदा कर सकते हैंकहा भी है‒

                 वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्
                         ज्योतिर्विदो  ग्रहगतिं  परिवर्तयन्ति ।
                 भूता विशन्तीति  भूतविदो  वदन्ति
                         प्रारब्धकर्म   बलवन्मुनयो   वदन्ति ॥

‘रोगोंके पैदा होनेमें वैद्यलोग कफपित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैंप्रेतविद्यावाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं;परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् (कारण) मानते हैं ।’

भोजनके लिये आवश्यक विचार

उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता हैवैसा ही मन बनता है‒‘अन्नमय हि सोम्य मनः ।’ (छान्दोग्य ६ । ५ । ४) अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है । अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता हैदूसरे नम्बरके भागसे वीर्यतीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है । अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्धपवित्र होना चाहिये । भोजनकी शुद्धिसे मन (अन्तःकरण-) की शुद्धि होती है‒‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’(छान्दोग्य २ । २६ । २) । जहाँ भोजन करते हैंवहाँका स्थानवायुमण्डलदृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैंवह आसन भी शुद्धपवित्र होना चाहिये । कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैंतब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते‒ग्रहण करते हैं । अतः वहाँका स्थानवायुमण्डल आदि जैसे होंगेप्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा । भोजन बनानेवालेके भावविचार भी शुद्ध सात्त्विक हों ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे