।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल तृतीयावि.सं.२०७१सोमवार
मुक्तिका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ बड़ी तत्परतासे भगवान्‌के भजनमें लग गये । उठतेबैठतेचलतेसोते आदि सब समयमें उनकी दृष्टि भगवान्‌की तरफ ही रहने लगी । बड़े-बड़े विघ्न आनेपर भी वे अपने साधनसे विचलित नहीं हुए । इस प्रकार उनकी लगनको देखकर भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌के वरदानसे उनको मनुष्यलोकके उत्तम भोगोंकी और भगवद्भक्त तथा धर्मात्मा पुत्रकी प्राप्ति हो गयी ।

सोमशर्माके पुत्रका नाम सुव्रत था । सुब्रत बचपनसे ही भगवान्‌का अनन्य भक्त था । खेल खेलते समय भी उसका मन भगवान् विष्णुके ध्यानमें लगा रहता था । जब माता सुमना उससे कहती कि ‘बेटा ! तुझे भूख लगी होगीकुछ खा ले’ तब वह कहता कि ‘माँ भगवान्‌का ध्यान महान् अमृतके समान हैमैं तो उसीसे तृप्त रहता हूँ !’ जब उसके सामने मिठाई आती तो वह उसको भगवान्‌के ही अर्पण कर देता और कहता कि ‘इस अन्नसे भगवान् तृप्त हों ।’ जब वह सोने लगतातब भगवान्‌का चिन्तन करते हुए कहता कि ‘मैं योगनिद्रापरायण भगवान् कृष्णकी शरण लेता हूँ ।’ इस प्रकार भोजन करतेवस्त्र पहनतेबैठते और सोते समय भी वह भगवान्‌के चिन्तनमें लगा रहता और सब वस्तुओंको भगवान्‌के अर्पण करता रहता । युवावस्था आनेपर भी वह भोगोंमें आसक्त नहीं हुआप्रत्युत भोगोंका त्याग-करके सर्वथा भगवान्‌के भजनमें ही लग गया । उसकी ऐसी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु उसके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌ने उससे वर माँगनेके लिये कहा तो वह बोला‒‘श्रीकृष्ण ! अगर आप मेरेपर प्रसन्न हैं तो मेरे माता-पिताको सशरीर अपने परम-धाममें पहुँचा दें और मेरे साथ मेरी पत्नीको भी अपने लोकमें ले चलें ।’ भगवान्‌ने सुब्रतकी भक्तिसे संतुष्ट होकर उसको उत्तम वरदान दे दिया । इस प्रकार पुत्रकी भक्तिके प्रभावसे सोमशर्मा और सुमना भी भगवद्धामको प्राप्त हो गये ।

इस कथामें विशेष बात यह आयी है कि संसारमें किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जन्म होता हैक्योंकि जीवने अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है । लेन-देनका यह व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है और इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता ।

संसारमें जिनसे हमारा सम्बन्ध होता है वे माता,पितास्त्रीपुत्र तथा पशु-पक्षी आदि सब लेन-देनके लिये ही आये हैं । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह उनमें मोह-ममता न करके अपने कर्तव्यका पालन करे अर्थात् उनकी सेवा करे,उन्हें यथाशक्ति सुख पहुँचाये । यहाँ यह शंका हो सकती है कि अगर हम दूसरेके साथ शत्रुताका बर्ताव करते हैं तो इसका दोष हमें क्यों लगता हैक्योंकि हम तो ऐसा व्यवहार पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे ही करते हैं इसका समाधान यह है कि मनुष्य-शरीर विवेकप्रधान है । अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर हमारे साथ बुरा व्यवहार करनेवालेको हम माफ कर सकते हैं और बदलेमें उससे अच्छा व्यवहार कर सकते हैं* । मनुष्य-शरीर बदला लेनेके लिये नहीं हैप्रत्युत जन्म-मरणसे सदाके लिये मुक्त होनेके लिये है । अगर हम पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे लेन-देनका व्यवहार करते रहेंगे तो हम कभी जन्म-मरणसे मुक्त हो ही नहीं सकेंगे । लेन-देनके इस व्यवहारको बंद करनेका उपाय है‒निःस्वार्थभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करना । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और बदलेमें कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार ऋणसे मुक्त होनेपर मनुष्य जन्म-मरणसे छूट जाता है ।

अगर मनुष्य भक्त सुब्रतकी तरह सब प्रकारसे भगवान्‌के ही भजनमें लग जाय तो उसके सभी ऋण समाप्त हो जाते हैं अर्थात् वह किसीका भी ऋणी नहीं रहता ।भगवद्धजनके प्रभावसे वह सभी ऋणोंसे मुक्त होकर सदाके लिये जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है और भगवान्‌के परमधामको प्राप्त हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!   नारायण !!!
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
     सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं   गतो  मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
                                                                        (श्रीमद्भा ११। ५। ४१)

 उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
                                                                                                      (मानस ५ । ४१ । ४)