।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमीवि.सं.२०७१गुरुवार
सत्संगकी आवश्यकता



 (गत ब्लॉगमें आगेका)
बीकानेरकी ही बात है । एक लड़का माँकी आज्ञाका पालन करता था । वह रोज माँको सत्संगमें पहुँचाता और सत्संग उठता तो आकर माँको ले जाता । एक दिन माँने उससे कहा कि तू भी दो-तीन दिन सत्संग सुन लेबैठ जा । वह सत्संग सुनने लगा । अब वह कहता है कि सत्संग छूटता ही नहीं मेरेसे । चखे बिना क्या पता चले कि लड्‌डूमें कितना स्वाद है ! अतः जिन्होंने सत्संग किया ही नहींवे बेचारे क्या जानें ? ‘मायाको मजूर बन्दो कहा जाने बन्दगी’ दूसरे सत्संग करें‒यह बात भी उनसे सही नहीं जाती ! दूसरा साधुको भोजन करा दे‒यह भी उनसे सहा नहीं जाता और कहते हैं‒‘मुफ्तमें खावे मोडा ।’ चोरी हम करते नहींडाका हम डालते नहीं । लोग खिलायें तब खाते हैं । लोगोंको मना करो तुम ! परन्तु उनसे सहा नहीं जाता । सत्संग सुहाता नहीं,भजन-ध्यानकी बात सुहाती नहीं ।
मजाल क्या है जीव की जो राम नाम ले,
पाप   देवे  थापकी  तो  मूँडो  फोर  दे ।

न तो खुद सत्संग करते हैंन दूसरोंको करने देते हैं‒‘खेतका अड़वा, न खावे न खाने दे ।’ पर आप पक्के रहें । आप भगवान्‌में लग जायँ तो पापताप सब नष्ट हो जायँगे ।जैसे सूर्यसे दुनियाका अन्धकार मिट जाता हैऐसे ही सत्संगसे हृदयका अन्धकार मिट जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे

अमृत-बिन्दु

धर्मके अनुसार खुद चले‒इसके समान धर्मका प्रचार कोई नहीं है ।
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          ‘आशीर्वाद दीजिये’‒ऐसा न कहकर आशीर्वाद पानेका पात्र बनना चाहिये ।
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वर्तमानका ही सुधार करना है । वर्तमान सुधरनेसे भूत और भविष्य दोनों सुधर जाते हैं ।
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दुःखी व्यक्ति ही दूसरेको दुःख देता है । पराधीन व्यक्ति ही दूसरेको अपने अधीन करता है ।
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          वस्तुका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत उसके सदुपयोगका महत्त्व है ।
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जो खुद भले नहीं हैं, जिनका स्वभाव भलाई करनेका नहीं है, उन्हींको ऐसा दीखता है कि आज भलाईका जमाना नहीं है !
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जबतक मनुष्यको दूसरेकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता दीखती है, तबतक वह साधक तो हो सकता है, पर सिद्ध नहीं हो सकता ।
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परमात्मा ‘प्राप्त’ हैं और संसार ‘प्रतीति’ है । जो मिलता है, पर दीखता नहीं, उसको ‘प्राप्त’ कहते हैं और जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसको ‘प्रतीति’ कहते हैं ।

‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे