।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल नवमीवि.सं.२०७१शनिवार
अहंताका त्याग



(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीरमें मैं-पन और मेरा-पनका व्यवहार होता है । इन्द्रियोंमें भी मैं-पन और मेरा-पनका व्यवहार होता है । जैसेइन्द्रियाँ मेरी हैंआँख मेरी हैकान मेरा हैनाक मेरी है । आँख ठीक नहीं हो तो मैं काना हो गयाआँख नहीं है तो मैं अन्धा हो गया । अपनेको आँखमें रखनेसे मैं कानाअन्धा हो गया । संसारमें मैं-पनका व्यवहार कम होता है और मेरापनका व्यवहार मुख्य होता है । शरीरमें मैं-पनका व्यवहार मुख्य होता है और मेरा-पनका व्यवहार कम होता है । मन-बुद्धिमें मेरा-पनका भी व्यवहार होता है और मैं-पनका भी । अहंकारमें भी ममता होती हैपर वह ममता गौण दीखती है और अहंता मुख्य दीखती है । अहंकारको अपनेमें स्थापन किया है इसलिये अहंकार मेरा दीखता है । मेरा अहंकार क्या है ? कि अहंकारपर टक्कर लगी तो मेरेपर टक्कर लगी ! यह बात बहुत सूक्ष्म है ।

कर्मयोग मुख्यरूपसे ममताको मिटाता है और ज्ञानयोग मुख्यरूपसे अहंताको मिटाता है । ममता मिटनेसे अहंता और अहंता मिटनेसे ममता मिट जाती है । दोनों साथ-साथ मिटते हैं ।

शरीरइन्द्रियाँ, अन्तःकरणप्राणमनबुद्धिविद्या,पदयोग्यताअधिकार‒ये सब घुल-मिलकर एक ‘मैं’ है ।इस मिले हुए ‘मैं’ को ठीक-ठीक देखे तो ठीक ज्ञान हो जाता है अर्थात् शरीरादि पदार्थ मेरेसे अलग हैंमेरा स्वरूप नहीं हैं‒ऐसा दीखने लग जाता है । घुले-मिले ‘मैं’ को कुछ नहीं दीखता । वह तो बिलकुल अन्धा है !

गीतामें कर्मयोगज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनोंमें अहंता-ममताके त्यागकी बात आयी हैजैसे,कर्मयोगमें‒
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।
                                                                                      (२ । ७१)
ज्ञानयोगमें‒
अहङ्कारं बलं दर्पं   कामं  क्रोध परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
                                                                                   (१८ । ५३)
भक्तियोगमें‒
निर्ममो निरहङ्कार समदुःखसुखः क्षमी ।
                                                                                 (१२ । १३)
सन्तोंने इसको मैं-मेरीका त्याग कहा है । मैं-पन और मेरा-पनका त्याग ही वास्तवमें त्याग है । वस्तुओंको,पदार्थोंको छोड़कर चले जाना त्याग नहीं है । यह त्याग तो मरनेपर होता ही है ! मरनेपर शरीरघर आदि याद ही नहीं रहते । पहले जन्मकी कोई भी बात याद नहीं रहती । परन्तु यह त्याग नहीं है । यह तो केवल मैं-पन और मेरा-पनको बदल दियायहाँसे वहाँ रख दिया । जैसे‘मैं गृहस्थ हूँ’‒इसको उठाकर ‘मैं साधु हूँ’इसमें रख दिया उसको । परन्तु बदलनेसे मुक्ति थोड़े ही हो जायगी ! मुक्ति तो सम्बन्ध-विच्छेदसे होगी ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे