।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशीवि.सं.२०७१शुक्रवार
व्रत-पूर्णिमा
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 (घ) रस‒मधुर (मीठा)अम्ल (खट्टा)लवण (नमकीन)कटु (कड़वा)तिक्त (तीखा) और कषाय (कसैला)‒इन छः रसोंको चखनेसे जो सुख होता हैवह रसका सुख है ।

(ङ) गन्ध‒नाकसे अतरतेलफुलेललवेण्डर, पुष्प आदि सुगन्धवाले और लहसुनप्याज आदि दुर्गन्धवाले पदार्थोंको सूँघनेसे जो सुख होता हैवह गन्धका सुख है ।

(च) मान‒शरीरका आदर-सत्कार होनेसे जो सुख होता हैवह मानका सुख है ।

(छ) बड़ाई‒नामकी प्रशंसावाह-वाह होनेसे जो सुख होता हैवह बड़ाईका सुख है ।

(ज) आराम‒शरीरसे परिश्रम न करनेसे अर्थात् निकम्मे पड़े रहनेसे जो सुख होता हैवह आरामका सुख है ।

(४) मोक्ष‒आत्मसाक्षात्कारतत्त्वज्ञानकल्याण,उद्धारमुक्ति भगवद्दर्शनभगवत्प्रेम आदिका नाम ‘मोक्ष’ है । इन चारों (अर्थधर्मकाम और मोक्ष) में देखा जाये तो अर्थ और धर्म‒दोनों ही परस्पर एक-दूसरेकी वृद्धि करनेवाले हैं अर्थात् अर्थसे धर्मकी और धर्मसे अर्थकी वृद्धि होती है । परन्तु धर्मका पालन कामनापूर्तिके लिये किया जाय तो वह धर्म भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है और अर्थको कामनापूर्तिमें लगाया जाय तो वह अर्थ भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है । तात्पर्य है कि कामना धर्म और अर्थ‒दोनोंको खा जाती है । इसीलिये गीतामें भगवान्‌ने कामनाको ‘महाशन’ (बहुत खानेवाला) बताते हुए उसके त्यागकी बात विशेषतासे कही है (३ । ३७‒४३) । यदि धर्मका अनुष्ठान कामनाका त्याग करके किया जाय तो वह अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है । ऐसे ही धनको कामनाका त्याग करके दूसरोंके उपकारमेंहितमेंसुखमें खर्च किया जाय तो वह भी अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है ।

अर्थधर्मकाम और मोक्ष‒इन चारोंमें ‘अर्थ’ (धन) और ‘काम’ (भोग) की प्राप्तिमें प्रारब्धकी मुख्यता और पुरुषार्थकी गौणता हैतथा ‘धर्म’ और ‘मोक्ष’ में पुरुषार्थकी मुख्यता और प्रारब्धकी गौणता है । प्रारब्ध और पुरुषार्थ-दोनोंका क्षेत्र अलग-अलग है और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रमें प्रधान हैं । इसलिये कहा है‒
संतोषस्त्रिषु कर्तव्यः    स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वाध्याये जपदानयो ॥

अर्थात् अपनी स्त्रीपुत्रपरिवारभोजन और धनमें तो सन्तोष करना चाहिये और स्वाध्यायपाठ-पूजानाम-जपकीर्तन और दान करनेमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि प्रारब्धके फल‒धन और भोगमें तो सन्तोष करना चाहियेक्योंकि वे प्रारब्धके अनुसार जितने मिलनेवाले हैंउतने ही मिलेंगेउससे अधिक नहीं । परन्तु धर्मका अनुष्ठान और अपना कल्याण करनेमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहियेक्योंकि यह नया पुरुषार्थ है और इसी पुरुषार्थके लिये मनुष्य-शरीर मिला है ।

   (अपूर्ण.....)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे