।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण षष्ठीवि.सं.२०७१गुरुवार
कर्म-रहस्य



 (गत ११ जुलाईके ब्लॉगसे आगेका)
 कर्मके दो भेद हैं‒शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) । शुभ कर्मका फल अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होना है और अशुभ कर्मका फल प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होना है । कर्म बाहरसे किये जाते हैंइसलिये उन कर्मोंका फल भी बाहरकी परिस्थितिके रूपमें ही प्राप्त होता है । परन्तु उन परिस्थितियोंसे जो सुख-दुःख होते हैंवे भीतर होते हैं । इसलिये उन परिस्थितियोंमें सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभकर्मोंका अर्थात् प्रारब्धका फल नहीं हैप्रत्युत अपनी मूर्खताका फल है । अगर वह मूर्खता चली जाय,भगवान्‌पर* अथवा प्रारब्धपर विश्वास हो जाय तो प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी चित्तमें प्रसन्नता होगीहर्ष होगा । कारण कि प्रतिकूल परिस्थितिमें पाप कटते हैंआगे पाप न करनेमें सावधानी आती है और पापोंके नष्ट होनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है ।

साधकको अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करना चाहियेदुरुपयोग नहीं । अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्रीको दूसरोंके हितके लिये सेवाबुद्धिसे खर्च करना अनुकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उसका सुख-बुद्धिसे भोग करना दुरुपयोग है । ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग करना और ‘मेरे पूर्वकृत पापोंका नाश करनेके लिये,भविष्यमें पाप न करनेकी सावधानी रखनेके लिये और मेरी उन्नति करनेके लिये ही प्रभु-कृपासे ऐसी परिस्थिति आयी है’ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है ।

मनुष्य-शरीर सुख-दुःख भोगनेके लिये नहीं है । सुख भोगनेके स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगनेके स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं । इसलिये वे भोगयोनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है । परन्तु यह कर्मयोनि उनके लिये है जो मनुष्यशरीरमें सावधान नहीं होतेकेवल जन्म-मरणके सामान्य प्रवाहमें ही पड़े हुए हैं । वास्तवमें मनुष्यशरीर सुख-दुःखसे ऊँचा उठनेके लिये अर्थात् मुक्तिकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । इसलिये इसको कर्मयोनि न कहकर ‘साधनयोनि’ ही कहना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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* लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।
   तद्वदेव   महेशस्य   नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥

‘जिस प्रकार बच्चेका पालन करने और ताड़ना करने‒दोनोंमें माताकी कहीं अकृपा नहीं होतीउसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती ।’

 यद्भावि  तद्भवत्येव    यदभाव्यं  न  तद्भवेत् ।
    इति निश्चितबुद्धीनां न चिन्ता बाधते क्वचित् ॥
                                    (नारदपुराणपूर्व ३७ । ४७)

       ‘जो होनेवाला हैवह होकर ही रहता है और जो न होनेवाला है,वह कभी नहीं होता‒ऐसा निश्चय जिनकी बुद्धिमें होता हैउन्हें चिन्ता कभी नहीं सताती ।’