।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण सप्तमीवि.सं.२०७१शुक्रवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 प्रारब्ध-कर्मोंके फलस्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती हैउन दोनोंमें अनुकूल परिस्थितिका स्वरूपसे त्याग करनेमें तो मनुष्य स्वतन्त्र हैपर प्रतिकूल परिस्थितिका स्वरूपसे त्याग करनेमें मनुष्य परतन्त्र है अर्थात् उसका स्वरूपसे त्याग नहीं किया जा सकता । कारण यह है कि अनुकूल परिस्थिति दूसरोंका हित करनेउन्हें सुख देनेके फलस्वरूप बनी है और प्रतिकूल परिस्थिति दूसरोंको दुःख देनेके फलस्वरूप बनी है । इसको एक दृष्टान्तसे इस प्रकार समझ सकते हैं‒

श्यामलालने रामलालको सौ रुपये उधार दिये । रामलालने वायदा किया कि अमुक महीने मैं व्याजसहित रुपये लौटा दूँगा । महीना बीत गया पर रामलालने रुपये नहीं लौटाये तो श्यामलाल रामलालके घर पहुँचा और बोला‒‘तुमने वायदेके अनुसार रुपये नहीं दिये ! अब दो ।’ रामलालने कहा‒‘अभी मेरे पास रुपये नहीं हैंपरसों दे दूँगा ।’ श्यामलाल तीसरे दिन पहुँचा और बोला‒‘लाओ मेरे रुपये !’ रामलालने कहा‒‘अभी मैं आपके पैसे नहीं जुटा सका,परसों आपके रुपये जरूर दूँगा ।’ तीसरे दिन फिर श्यामलाल पहुँचा और बोला‒‘रुपये दो !’ तो रामलालने कहा‒‘कल जरूर दूँगा ।’ दूसरे दिन श्यामलाल फिर पहुँचा और बोला‒‘लाओ मेरे रुपये !’ रामलालने कहा‒‘रुपये जुटे नहीं,मेरे पास रुपये हैं नहीं तो मैं कहाँसे दूँ परसों आना ।’ रामलालकी बातें सुनकर श्यामलालको गुस्सा आ गया और ‘परसों-परसों करता हैरुपये देता नहीं’ऐसा कहकर उसने रामलालको पाँच जूते मार दिये । रामलालने कोर्टमें नालिश (शिकायत) कर दी । श्यामलालको बुलाया गया और पूछा गया‒‘तुमने इसके घरपर जाकर जूता मारा है ?’ तो श्यामलालने कहा‒‘हाँ साहबमैंने जूता मारा है ।’ मैजिस्ट्रेटने पूछा‒‘क्यों मारा ?

श्यामलालने कहा‒‘इसको मैंने रुपये दिये थे और इसने वायदा किया था कि मैं इस महीने रुपये लौटा दूँगा । महीना बीत जानेपर मैंने इसके घरपर जाकर रुपये माँगे तो कल-परसोंकल-परसों कहकर इसने मुझे बहुत तंग किया । इसपर मैंने गुस्सेमें आकर इसे पाँच जूते मार दिये तो सरकार ! पाँच जूतोंके पाँच रुपये काटकर शेष रुपये मुझे दिला दीजिये ।’

मैजिस्ट्रेटने हँसकर कहा‒‘यह फौजदारी कोर्ट है । यहाँ रुपये दिलानेका कायदा (नियम) नहीं है । यहाँ दण्ड देनेका कायदा है । इसलिये आपको जूता मारनेके बदलेमें कैद या जुर्माना भोगना ही पड़ेगा । आपको रुपये लेने हों तो दीवानी कोर्टमें जाकर नालिश करोवहाँ रुपये दिलानेका कायदा है;क्योंकि वह विभाग अलग है ।’

इस तरह अशुभ कर्मोंका फल जो प्रतिकूल परिस्थिति हैवह ‘फौजदारी’ हैइसलिये उसका स्वरूपसे त्याग नहीं कर सकते और शुभ कर्मोंका फल जो अनुकूल परिस्थिति है,वह ‘दीवानी’ हैइसलिये उसका स्वरूपसे त्याग किया जा सकता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यके शुभ-अशुभ कर्मोंका विभाग अलग-अलग है । इसलिये शुभ कर्मों (पुण्यों) और अशुभ कर्मों- (पापों- ) का अलग-अलग संग्रह होता है । स्वाभाविकरूपसे ये दोनों एक-दूसरेसे कटते नहीं अर्थात् पापोंसे पुण्य नहीं कटते और पुण्योंसे पाप नहीं कटते । हाँ, अगर मनुष्य पाप काटनेके उद्देश्यसे (प्रायश्चित्तरूपसे) शुभ कर्म करता है तो उसके पाप कट सकते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे