।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण अष्टमीवि.सं.२०७१शनिवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 संसारमें एक आदमी पुण्यात्मा हैसदाचारी है और दुःख पा रहा है तथा एक आदमी पापात्मा हैदुराचारी है और सुख भोग रहा है‒इस बातको लेकर अच्छे-अच्छे पुरुषोंके भीतर भी यह शंका हो जाया करती है कि इसमें ईश्वरका न्याय कहाँ है ?* इसका समाधान यह है कि अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रहा हैयह पूर्वके किसी जन्ममें किये हुए पापका फल हैअभी किये हुए पुण्यका नहीं । ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा हैयह भी पूर्वके किसी जन्ममें किये हुए पुण्यका फल है अभी किये हुए पापका नहीं ।

इसमें एक तात्त्विक बात और है । कर्मोंके फलरूपमें जो अनुकूल परिस्थिति आती हैउससे सुख ही होता है और प्रतिकूल परिस्थिति आती हैउससे दुःख ही होता है‒ऐसी बात है नहीं । जैसेअनुकूल परिस्थिति आनेपर मनमें अभिमान होता हैछोटोंसे घृणा होती हैअपनेसे अधिक सम्पत्तिवालोंको देखकर उनसे ईर्ष्या होती हैअसहिष्णुता होती हैअन्तःकरणमें जलन होती है और मनमें ऐसे दुर्भाव आते हैं कि उनकी सम्पत्ति कैसे नष्ट हो तथा वक्तपर उनको नीचा दिखानेकी चेष्टा भी होती है । इस तरह सुख-सामग्री और धन-सम्पत्ति पासमें रहनेपर भी वह सुखी नहीं हो सकता । परन्तु बाहरी सामग्रीको देखकर अन्य लोगोंको यह भ्रम होता है कि वह बड़ा सुखी है । ऐसे ही किसी विरक्त और त्यागी मनुष्यको देखकर भोग-सामग्रीवाले मनुष्यको उसपर दया आती है कि बेचारेके पास धन-सम्पत्ति आदि सामग्री नहीं हैबेचारा बड़ा दुःखी है ! परन्तु वास्तवमें विरक्तके मनमें बड़ी शान्ति और बड़ी प्रसन्नता रहती है । वह शान्ति और प्रसन्नता धनके कारण किसी धनीमें नहीं रह सकती । इसलिये धनका होनामात्र सुख नहीं है और धनका अभावमात्र दुःख नहीं है । सुख नाम हृदयकी शान्ति और प्रसन्नताका है और दुःख नाम हृदयकी जलन और सन्तापका है ।

पुण्य और पापका फल भोगनेमें एक नियम नहीं है । पुण्य तो निष्कामभावसे भगवान्‌के अर्पण करनेसे समाप्त हो सकता हैपरन्तु पाप भगवान्‌के अर्पण करनेसे समाप्त नहीं होता । पापका फल तो भोगना ही पड़ता हैक्योंकि भगवान्‌की आज्ञाके विरुद्ध किये हुए कर्म भगवान्‌के अर्पण कैसे हो सकते हैं और अर्पण करनेवाला भी भगवान्‌के विरुद्ध कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण क्सैए कर सकता है प्रत्युत भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान्‌के अर्पण होते हैं । इस विषयमें एक कहानी आती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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          * महाभारतवनपर्वमें एक कथा आती है । एक दिन द्रौपदीने युधिष्ठिरजी महाराजसे कहा कि आप धर्मको छोड़कर एक कदम भी आगे नहीं रखतेपर आप वनवासमें दुःख पा रहे हैं और दुर्योधन धर्मकी किंचिन्मात्र भी परवाह न करके केवल स्वार्थ-परायण हो रहा हैपर वह राज्य कर रहा हैआरामसे रह रहा है और सुख भोग रहा है  ऐसी शंका करनेपर युधिष्ठिरजी महाराजने कहा कि जो सुख पानेकी इच्छासे धर्मका पालन करते हैंवे धर्मके तत्त्वको जानते ही नहीं ! वे तो पशुओंकी तरह सुख-भोगके लिये लोलुप और दुःखसे भयभीत रहते हैंफिर बेचारे धर्मके तत्त्वको कैसे जानें ! इसलिये मनुष्यकी मनुष्यता इसीमें है कि वे अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिकी परवाह न करके शास्त्रके आज्ञानुसार केवल अपने धर्म- (कर्तव्य- )का पालन करते रहें ।