।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण नवमीवि.सं.२०७१रविवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 एक राजा अपनी प्रजा-सहित हरिद्वार गया । उसके साथमें सब तरहके लोग थे । उनमें एक चमार भी था । उस चमारने सोचा कि ये बनिये लोग बड़े चतुर होते हैं । ये अपनी बुद्धिमानीसे धनी बन गये हैं । अगर हम भी उनकी बुद्धिमानीके अनुसार चलें तो हम भी धनी बन जायँ ! ऐसा विचार करके वह एक चतुर बनियेकी क्रियाओंपर निगरानी रखकर चलने लगा । जब हरिद्वारके ब्रह्मकुण्डमें पण्डा दान-पुण्यका संकल्प कराने लगातब उस बनियेने कहा‒‘मैंने अमुक ब्राह्मणको सौ रुपये उधार दिये थेआज मैं उनको दानरूपमें श्रीकृष्णार्पण करता हूँ !’ पण्डेने संकल्प भरवा दिया । चमारने देखा कि इसने एक कौड़ी भी नहीं दी और लोगोंमें प्रसिद्ध हो गया कि इसने सौ रुपयोंका दान कर दियाकितना बुद्धिमान् है ! मैं भी इससे कम नहीं रहूँगा । जब पण्डेने चमारसे संकल्प भरवाना शुरू कियातब चमारने कहा‒‘अमुक बनियेने मुझे सौ रुपये उधार दिये थे तो उन सौ रुपयोंको मैं श्रीकृष्णार्पण करता हूँ ।’ उसकी ग्रामीण बोलीको पण्डा पूरी तरह समझा नहीं और संकल्प भरवा दिया । इससे चमार बड़ा खुश हो गया कि मैंने भी बनियेके समान सौ रुपयोंका दान-पुण्य कर दिया !

सब घर पहुँचे । समयपर खेती हुई । ब्राह्मण और चमारके खेतोंमें खूब अनाज पैदा हुआ । ब्राह्मण-देवताने बनियेसे कहा‒‘सेठ ! आप चाहें तो सौ रुपयोंका अनाज ले लोइससे आपको नफा भी हो सकता है । मुझे तो आपका कर्जा चुकाना है ।’ बनियेने कहा‒‘ब्राह्मण देवता ! जब मैं हरिद्वार गया थातब मैंने आपको उधार दिये हुए सौ रुपये दान कर दिये ।’ ब्राह्मण बोला‒‘सेठ ! मैंने आपसे सौ रुपये उधार लिये हैंदान नहीं लिये । इसलिये इन रुपयोंको मैं रखना नहीं चाहताव्याजसहित पूरा चुकाना चाहता हूँ ।’ सेठने कहा‒‘आप देना ही चाहते हैं तो अपनी बहन अथवा कन्याको दे सकते हैं । मैंने सौ रुपये भगवान्‌के अर्पण कर दिये हैंइसलिये मैं तो लूँगा नहीं ।’ अब ब्राह्मण और क्या करता ?वह अपने घर लौट गया । अब जिस बनियेसे चमारने सौ रुपये लिये थेवह बनिया चमारके खेतमें पहुँचा और बोला‒‘लाओ मेरे रुपये । तुम्हारा अनाज हुआ है सौ रुपयोंका अनाज ही दे दो ।’ चमारने सुन रखा था कि ब्राह्मणके देनेपर भी बनियेने उससे रुपये नहीं लिये । अतः उसने सोचा कि मैंने भी संकल्प कर रखा है तो मेरेको रुपये क्यों देने पड़ेंगे ऐसा सोचकर चमार बनियेसे बोला‒‘मैंने तो अमुक सेठकी तरह गंगाजीमें खड़े होकर सब रुपये श्रीकृष्णार्पण कर दिये तो मेरेको रुपये क्यों देने पड़ेंगे ?’ बनिया बोला‒‘तेरे अर्पण कर देनेसे कर्जा नहीं छूट सकताक्योंकि तूने मेरेसे कर्जा लिया है तो तेरे छोडनेसे कैसे छूट जायगा मैं तो अपने सौ रुपये व्याजसहित पूरे लूँगालाओ मेरे रुपये !’ ऐसा कहकर उसने चमारसे अपने रुपयोंका अनाज ले लिया ।

इस कहानीसे यह सिद्ध होता है कि हमारेपर दूसरोंका जो कर्जा हैवह हमारे छोड़नेसे नहीं छूट सकता । ऐसे हीहम भगवदाज्ञानुसार शुभ कर्मोंको तो भगवान्‌के अर्पण करके उनके बन्धनसे छूट सकते हैंपर अशुभ कर्मोंका फल तो हमारेको भोगना ही पड़ेगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे