।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण एकादशीवि.सं.२०७१मंगलवार
कामदा एकादशी-व्रत (सबका)
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 अगर धनका प्रारब्ध नहीं है तो चोरी करनेपर भी धन नहीं मिलेगाप्रत्युत चोरी किसी प्रकारसे प्रकट हो जायगी तो बचा हुआ धन भी चला जायगा तथा दण्ड और मिलेगा । यहाँ दण्ड मिले या न मिलेपर परलोकमें तो दण्ड जरूर मिलेगा । उससे वह बच नहीं सकेगा । अगर प्रारब्धवश चोरी करनेसे धन मिल भी जाय तो भी उस धनका उपभोग नहीं हो सकेगा । वह धन बीमारीमेंचोरीमेंडाकेमें,मुकदमेमेंठगाईमें चला जायगा । तात्पर्य यह कि वह धन जितने दिन टिकनेवाला हैउतने ही दिन टिकेगा और फिर नष्ट हो जायगा । इतना ही नहींइन्कम-टैक्स आदिकी चोरी करनेके जो संस्कार भीतर पड़े हैंवे संस्कार जन्म-जन्मान्तरतक उसे चोरी करनेके लिये उकसाते रहेंगे और वह उनके कारण दण्ड पाता रहेगा ।

अगर धनका प्रारब्ध है तो कोई गोद ले लेगा अथवा मरता हुआ कोई व्यक्ति उसके नामसे वसीयतनामा लिख देगा अथवा मकान बनाते समय नींव खोदते ही जमीनमें गड़ा हुआ धन मिल जायगाआदि-आदि । इस प्रकार प्रारब्धके अनुसार जो धन मिलनेवाला हैवह किसी-न-किसी कारणसे मिलेगा ही* 

परन्तु मनुष्य प्रारब्धपर तो विश्वास करता नहींकम-से-कम अपने पुरुषार्थपर भी विश्वास नहीं करता कि हम मेहनतसे कमाकर खा लेंगे । इसी कारण उसकी चोरी आदि दुष्कर्मोंमें प्रवृत्ति हो जाती हैजिससे हृदयमें जलन रहती है,दूसरोंसे छिपाव करना पड़ता हैपकड़े जानेपर दण्ड पाना पड़ता हैआदि-आदि । अगर मनुष्य विश्वास और सन्तोष रखे तो हृदयमें महान् शान्तिआनन्दप्रसन्नता रहती है तथा आनेवाला धन भी आ जाता है और जितना जीनेका प्रारब्ध हैउतनी जीवन-निर्वाहकी सामग्री भी किसी-न-किसी तरह मिलती ही रहती है ।

जैसे व्यापारमें घाटा लगनाघरमें किसीकी मृत्यु होनाबिना कारण अपयश और अपमान होना आदि प्रतिकूल परिस्थितिको कोई भी नहीं चाहता पर फिर भी वह आती ही हैऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी आती ही है,उसको कोई रोक नहीं सकता । भागवतमें आया है‒
सुखमैन्द्रियकं  राजन्     स्वर्गे  नरक  एव  च ।
देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुधः ॥
                                          (श्रीमद्भा ११ । ८ । १)

‘राजन् ! प्राणियोंको जैसे इच्छाके बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैंऐसे ही इन्द्रियजन्य सुख स्वर्गमें और नरकमें भी प्राप्त होते हैं । अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह उन सुखोंकी इच्छा न करे ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

___________________
* प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो      दैवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः ।
   तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ॥
                                                                 (पञ्चतन्त्र मित्रसम्प्राप्ति ११२)

             ‘प्राप्त होनेवाला धन मनुष्यको मिलता ही हैदैव भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता । इसलिये न तो मैं शोक करता हूँ और न मुझे विस्मय ही होता हैक्योंकि जो हमारा है वह दूसरोंका नहीं हो सकता ।’