।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण चतुर्दशीवि.सं.२०७१शुक्रवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 (६) एक आदमीने दूसरे आदमीको मार दिया तो यह उसने पिछले जन्मके वैरका बदला लिया और मरनेवालेने पुराने कर्मोंका फल पायाफिर मारनेवालेका क्या दोष ?

मारनेवालेका दोष है । दण्ड देना शासकका काम हैसर्वसाधारणका नहीं । एक आदमीको दस बजे फाँसी मिलनी है । एक-दूसरे आदमीने उस (फाँसीकी सजा पानेवाले) आदमीको जल्लादोंके हाथोंसे छुड़ा लिया और ठीक दस बजे उसे कत्ल कर दिया ! ऐसी हालतमें उस कत्ल करनेवाले आदमीको भी फाँसी होगी कि यह आज्ञा तो राज्यने जल्लादोंको दी थी पर तुम्हें किसने आज्ञा दी थी ?

मारनेवालेको यह याद नहीं है कि मैं पूर्वजन्मका बदला ले रहा हूँफिर भी मारता है तो यह उसका दोष है ।दूसरेको मारनेका अधिकार किसीको भी नहीं है । मरना कोई भी नहीं चाहता । दूसरेको मारना अपने विवेकका अनादर है । मनुष्यमात्रको विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेकके अनुसार अच्छे या बुरे कार्य करनेमें वह स्वतन्त्र है । अतः विवेकका अनादर करके दूसरेको मारना अथवा मारनेकी नीयत रखना दोष है ।

यदि पूर्वजन्मका बदला एक-दूसरे ऐसे ही चुकाते रहें तो यह श्रृंखला कभी खत्म नहीं होगी और मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकेगा ।

पिछले जन्मका बदला अन्य (साँप आदि) योनियोंमें लिया जा सकता है । मनुष्ययोनि बदला लेनेके लिये नहीं है । हाँ, यह हो सकता है कि पिछले जन्मका हत्यारा व्यक्ति हमें स्वाभाविक ही अच्छा नहीं लगेगाबुरा लगेगा । परन्तु बुरे लगनेवाले व्यक्तिसे द्वेष करना या उसे कष्ट देना दोष हैक्योंकि यह नया कर्म है ।

जैसा प्रारब्ध हैउसीके अनुसार उसकी बुद्धि बन गयीफिर दोष किस बातका ?

बुद्धिमें जो द्वेष हैउसके वशमें हो गया‒यह दोष है । उसे चाहिये कि वह उसके वशमें न होकर विवेकका आदर करे । गीता भी कहती है कि बुद्धिमें जो राग-द्वेष रहते हैं (३ । ४०)उनके वशमें न हो‒‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (३ । ३४) ।

(७) प्रारब्ध और भगवत्कृपामें क्या अन्तर है ?

इस जीवको जो कुछ मिलता हैवह प्रारब्धके अनुसार मिलता है पर प्रारब्ध-विधानके विधाता स्वयं भगवान् हैं । कारण कि कर्म जड होनेसे स्वतन्त्र फल नहीं दे सकतेवे तो भगवान्‌के विधानसे ही फल देते है । जैसेएक आदमी किसीके खेतमें दिनभर काम करता है तो उसको शामके समय कामके अनुसार पैसे मिलते हैं पर मिलते हैं खेतके मालिकसे ।

पैसे तो काम करनेसे ही मिलते हैंबिना काम किये पैसे मिलते हैं क्या ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे