।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल चतुर्थीवि.सं.२०७१गुरुवार
दुर्गतिसे बचो



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒कौन-से मनुष्य मरनेके बाद भूत-प्रेत बनते हैं ?

उत्तर‒जिन मनुष्योंका खान-पान अशुद्ध होता है,जिनके आचरण खराब होते हैंजो दुर्गुण-दुराचारोंमे लगे रहते हैंजिनका दूसरोंको दुःख देनेका स्वभाव हैजो केवल अपनी ही जिद रखते हैंऐसे मनुष्य मरनेके बाद कूर स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये जिनमें प्रविष्ट होते हैं,उनको बहुत दुःख देते हैं और मन्त्र आदिसे भी जल्दी नहीं निकलते ।

जिन मनुष्योंका स्वभाव सौम्य हैदूसरोंको दुःख देनेका नहीं हैपरन्तु सांसारिक वस्तुस्त्रीपुत्रधनजमीन आदिमें जिनकी ममता-आसक्ति रहती है, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद सौम्य स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसको दुःख नहीं देते और अपनी गतिका उपाय भी बता देते हैं ।

जिनको विद्या आदिका बहुत अभिमानमद होता है;उस अभिमानके कारण जो दूसरोंको नीचा दिखाते हैं,दूसरोंका अपमान-तिरस्कार करते हैंदूसरोंको कुछ भी नहीं समझतेऐसे मनुष्य मरकर ‘ब्रह्मराक्षस’ (जिन्न) बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैंकिसीको पकड़ लेते हैं तो बिना अपनी इच्छाके उसको छोड़ते नहीं । इनपर कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं चलता । दूसरा कोई इनपर मन्त्रोंका प्रयोग करता है तो उन मन्त्रोंको ये स्वयं बोल देते हैं ।

एक सच्ची घटना है । दक्षिणमें मोरोजी पन्त नामक एक बहुत बड़े विद्वान् थे । उनको विद्याका बहुत अभिमान था । वे अपने समान किसीको विद्वान् मानते ही नहीं थे और सबको नीचा दिखाते थे । एक दिनकी बात हैदोपहरके समय वे अपने घरसे स्नान करनेके लिये नदीपर जा रहे थे । मार्गमें एक पेड़पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे हुए थे । वे आपसमें बातचीत कर रहे थे । एक ब्रह्मराक्षस बोला‒हम दोनों तो इस पेड़की दो डालियोंपर बैठे हैंपर यह तीसरी डाली खाली हैइसपर कौन आयेगा बैठनेके लिये दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला‒यह जो नीचेसे जा रहा है न यह आकर यहाँ बैठेगाक्योंकि इसको अपनी विद्वत्ताका बहुत अभिमान है । उन दोनोंके संवादको मोरोजी पन्तने सुना तो वे वहीं रुक गये और विचार करने लगे कि अरे ! विद्याके अभिमानके कारण मेरेको ब्रह्मराक्षस बनना पड़ेगाप्रेतयोनियोंमे जाना पड़ेगा ! अपनी दुर्गतिसे वे घबरा गये और मन-ही-मन सन्त ज्ञानेश्वरजीके शरणमें गये कि मैं आपके शरणमें हूँआपके सिवाय मेरेको इस दुर्गतिसे बचानेवाला कोई नहीं है । ऐसा विचार करके वे वहींसे आलन्दीके लिये चल पड़ेजहाँ संत ज्ञानेश्वरजी जीवित समाधि ले चुके थे । फिर वे जीवनभर वहीं रहेघर आये ही नहीं । सन्तकी शरणमें जानेसे उनका विद्याका अभिमान चला गया और सन्त-कृपासे वे भी सन्त बन गये !

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘दुर्गतिसे बचो’ पुस्तकसे