।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल सप्तमीवि.सं.२०७१शुक्रवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगकी टिपण्णीका शेष भाग)
 सुबह होते ही एक आदमी रोता-चिल्लाता हुआ आया और बोला‒‘हमारे भाईकी हत्या हो गयीसरकार ! इसकी जाँच होनी चाहिये ।’ तब जजने उसी सिपाहीको और कैदी सज्जनको मरे व्यक्तिकी लाश उठाकर लानेके लिये भेजा । दोनों उस आदमीके साथ वहाँ गयेजहाँ लाश पड़ी थी । खाटपर लाशके ऊपर कपड़ा बिछा था । खून बिखरा पड़ा था । दोनोंने उस खाटको उठाया और उठाकर ले चले । साथका दूसरा आदमी खबर देनेके बहाने दौड़कर आगे चला गया । तब चलते-चलते सिपाहीने कैदीसे कहा‒‘देखउस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होतीअब देख लिया सच्चाईका फल’ कैदीने कहा‒‘मैंने तो अपना काम सच्चाईका ही किया थाफाँसी हो गयी तो हो गयी ! हत्या की तूने और दण्ड भोगना पड़ा मेरेको ! भगवान्‌के यहाँ न्याय नहीं !’

खाटपर झूठमूठ मरे हुएके समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनोंकी बातें सुन रहा था । जब जजके सामने खाट रखी गयी तो खूनभरे कपड़ेको हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जजको बता दी कि रास्तेमें सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला । यह सुनकर जजको बड़ा आश्चर्य हुआ । सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया । सिपाहीको पकड़कर कैद कर लिया गया । परन्तु जजके मनमें सन्तोष नहीं हुआ । उसने कैदीको एकान्तमें बुलाकर कहा कि ‘इस मामलेमें तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँपर सच-सच बताओ कि इस जन्ममें तुमने कोई हत्या की है क्या ?’ वह बोला‒बहुत पहलेकी घटना है । एक दुष्ट थाजो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्रीके पास आया करता था । मैंने अपनी स्त्रीको तथा उसको अलग-अलग खूब समझायापर वह माना नहीं । एक रात वह घरपर था और अचानक मैं आ गया । मेरेको गुस्सा आया हुआ था । मैंने तलवारसे उसका गला काट दिया और घरके पीछे जो नदी हैउसमें फेंक दिया । इस घटनाका किसीको पता नहीं लगा । यह सुनकर जज बोला‒‘तुम्हारेको इस समय फाँसी होगी हीमैंने भी सोचा कि मैंने किसीसे घूस (रिश्वत) नहीं खायीकभी बेईमानी नहीं कीफिर मेरे हाथसे इसके लिये फाँसीका हुक्म लिखा कैसे गया ? अब सन्तोष हुआ । उसी पापका फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा । सिपाहीको अलग फाँसी होगी ।’
[ उस सज्जनने चोर सिपाहीको पकड़कर अपने कर्तव्यका पालन किया था । फिर उसको जो दण्ड मिला है,वह उसके कर्तव्य-पालनका फल नहीं हैप्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थीउस हत्याका फल है । कारण कि मनुष्यको अपनी रक्षा करनेका अधिकार हैमारनेका अधिकार नहीं । मारनेका अधिकार रक्षक क्षत्रियकाराजाका है । अतः कर्तव्यका पालन करनेके कारण उस पाप- (हत्या-) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोकके भयंकर दण्डसे उसका छुटकारा हो गया । कारण कि इस लोकमें जो दण्ड भोग लिया जाता हैउसका थोड़ेमें ही छुटकारा हो जाता है,थोड़ेमें ही शुद्धि हो जाती हैनहीं तो परलोकमें बड़ा भयंकर (व्याजसहित) दण्ड भोगना पड़ता है । ]

इस कहानीसे यह पता लगता है कि मनुष्यके कब किये हुए पापका फल कब मिलेगा‒इसका कुछ पता नहीं । भगवान्‌का विधान विचित्र है । जबतक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं तबतक उग्र पापका फल भी तत्काल नहीं मिलता । जब पुराने पुण्य खत्म होते हैंतब उस पापकी बारी आती है । पापका फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता हैचाहे इस जन्ममें भोगना पड़े या जन्मान्तरमें ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म    जन्मकोटिशतैरपि ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे