।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल अष्टमीवि.सं.२०७१शनिवार
कर्म-रहस्य



 (३ जुलाईके ब्लॉगसे आगेका)
 इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारोंको लेकर स्वभाव (प्रकृतिआदत) बनता है । उन संस्कारोमेंसे अशुद्ध अंशका सर्वथा नाश करनेपर स्वभाव शुद्धनिर्मलपवित्र हो जाता हैपरन्तु जिन पूर्वकृत कर्मोंसे स्वभाव बना हैउन कर्मोंकी भिन्नताके कारण जीवन्तुक्त पुरुषोंके स्वभावोंमें भी भिन्नता रहती है । इन विभिन्न स्वभावोंके कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं पर वे कर्म दोषी नहीं होतेप्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मोंसे दुनियाका कल्याण होता है ।
संस्कार-अंशसे जो स्वभाव बनता हैवह एक दृष्टिसे महान् प्रबल होता है‒‘स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते’ अतः उसे मिटाया नहीं जा सकता* । इसी प्रकार ब्राह्मणक्षत्रिय आदि वर्णोंका जो स्वभाव हैउसमें कर्म करनेकी मुख्यता रहती है । इसलिये भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा है कि जिस कर्मको तू मोहवश नहीं करना चाहताउसको भी अपने स्वाभाविक कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा (गीता १८ । ६०) ।
अब इसमें विचार करनेकी एक बात है कि एक ओर तो स्वभावकी महान् प्रबलता है कि उसको कोई छोड़ ही नहीं सकता और दूसरी ओर मनुष्य-जन्मके उद्योगकी महान् प्रबलता है कि मनुष्य सब कुछ करनेमें स्वतन्त्र है । अतः इन दोनोंमें किसकी विजय होगी और किसकी पराजय होगी ?इसमें विजय-पराजयकी बात नहीं है । अपनी-अपनी जगह दोनों ही प्रबल हैं । परन्तु यहाँ स्वभाव न छोड़नेकी जो बात हैवह जाति-विशेषके स्वभावकी बात है । तात्पर्य है कि जीव जिस वर्णमें जन्मा हैजैसा रज-वीर्य थाउसके अनुसार बना हुआ जो स्वभाव हैउसको कोई बदल नहीं सकताअतः वह स्वभाव दोषी नहीं हैनिर्दोष है । जैसेब्राह्मणक्षत्रिय आदि वर्णोंका जो स्वभाव हैवह स्वभाव नहीं बदल सकता और उसको बदलनेकी आवश्यकता भी नहीं है तथा उसको बदलनेके लिये शास्त्र भी नहीं कहता । परन्तु उस स्वभावमें जो अशुद्ध-अंश (राग-द्वेष) हैउसको मिटानेकी सामर्थ्य भगवान्‌ने मनुष्यको दी है । अतः जिन दोषोंसे मनुष्यका स्वभाव अशुद्ध बना हैउन दोषोंको मिटाकर मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक अपने स्वभावको शुद्ध बना सकता है । मनुष्य चाहे तो कर्मयोगकी दृष्टिसेअपने प्रयलसे राग-द्वेषको मिटाकर स्वभाव शुद्ध बना लेचाहे भक्तियोगकी दृष्टिसे सर्वथा भगवान्‌के शरण होकर अपना स्वभाव शुद्ध बना ले। इस प्रकार प्रकृति- (स्वभाव-) की प्रबलता भी सिद्ध हो गयी और मनुष्यकी स्वतन्त्रता भी सिद्ध हो गयी । तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध स्वभावको रखनेमें प्रकृतिकी प्रबलता है और अशुद्ध स्वभावको मिटानेमें मनुष्यकी स्वतन्त्रता है ।
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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     * व्याघ्रस्तुष्यति कानने सुगहनां सिंहो गुहां सेवते हंसो वाञ्छति पद्मिनीं कुसुमितां गृध्रः श्मशाने स्थले ।
     साधुः सत्कृतिसाधुमेव भजते नीचोऽपि नीच जनं या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ॥

‘व्याघ्र घने वनमें संतुष्ट रहता हैसिंह गहन गुफाका सेवन करता हैहंस खिली हुई कमलिनीको चाहता हैगीध श्मशान-भूमिमें रहना पसंद करता हैसज्जन पुरुष अच्छे आचरणोंवाले सज्जन पुरुषोंमें और नीच पुरुष नीच लोगोंमें ही रहना चाहते हैं । सच हैस्वभावसे पैदा हुई जिसकी जैसी प्रकृति हैउस प्रकृतिको कोई नहीं छोड़ता ।’

 इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
    तयोर्न वशमागच्छेत्तौ  हस्य  परिपन्थिनौ ॥
                                             (गीता ३ । ३४)

 तमेव     शरणं     गच्छ       सर्वभावेन   भारत ।
    ततसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
                                                  (गीता १८ । ६२)