।। श्रीहरिः ।।
 

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल नवमीवि.सं.२०७१रविवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

 जैसेलोहेकी तलवारको पारस छुआ दिया जाय तो तलवार सोना बन जाती हैपरन्तु उसकी मारधार और आकार‒ये तीनों नहीं बदलते । इस प्रकार सोना बनानेमें पारसकी प्रधानता रही और ‘मार-धार-आकार’ में तलवारकी प्रधानता रही । ऐसे ही जिन लोगोंने अपने स्वभावको परम शुद्ध बना लिया हैउनके कर्म भी सर्वथा शुद्ध होते हैं । परन्तुस्वभावके शुद्ध होनेपर भी वर्णआश्रमसम्प्रदायसाधन-पद्धतिमान्यता आदिके अनुसार आपसमें उनके कर्मोंकी भिन्नता रहती है । जैसे, किसी ब्राह्मणको तत्त्वबोध हो जानेपर भी वह खान-पान आदिमें पवित्रता रखेगा और अपने हाथसे बनाया हुआ भोजन ही ग्रहण करेगाक्योंकि उसके स्वभावमें पवित्रता है । परन्तु किसी हरिजन आदि साधारण वर्णवालेको तत्त्वबोध हो जाय तो वह खान-पान आदिमें पवित्रता नहीं रखेगा और दूसरोंकी जूठन भी खा लेगाक्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा पड़ा हुआ है । पर ऐसा स्वभाव उसके लिये दोषी नहीं होगा ।

जीवका असत्‌के साथ सम्बन्ध जोड़नेका स्वभाव अनादिकालसे बना हुआ हैजिसके कारण वह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ है और बार-बार ऊँच-नीच योनियोंमें जाता है । उस स्वभावको मनुष्य शुद्ध कर सकता है अर्थात् उसमें जो कामनाममता और तादात्म्य हैं उनको मिटा सकता है । कामनाममता और तादात्म्यके मिटनेके बाद जो स्वभाव रहता हैवह स्वभाव दोषी नहीं रहता । इसलिये उस स्वभावको मिटाना नहीं है और मिटानेकी आवश्यकता भी नहीं है ।

जब मनुष्य अहंकारका आश्रय छोड़कर सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाता हैतब उसका स्वभाव शुद्ध हो जाता हैजैसे‒लोहा पारसके स्पर्शसे शुद्ध सोना बन जाता है । स्वभाव शुद्ध होनेसे फिर वह स्वभावज कर्म करते हुए भी दोषी और पापी नहीं बनता (गीता १८ । ४७) । सर्वथा भगवान्‌के शरण होनेके बाद भक्तका प्रकृतिके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । फिर भक्तके जीवनमें भगवान्‌का स्वभाव काम करता है । भगवान् समस्त प्राणियोंके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) तो भक्त भी समस्त प्राणियोंका सुहद् हो जाता है‒‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा ३ । २५ । २१) ।

इसी तरह कर्मयोगकी दृष्टिसे जब मनुष्य राग-द्वेषको मिटा देता हैतब उसके स्वभावकी शुद्धि हो जाती हैजिससे अपने स्वार्थका भाव मिटकर केवल दुनियाके हितका भाव स्वतः हो जाता है । जैसे भगवान्‌का स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका हैऐसे ही उसका स्वभाव भी प्राणिमात्रका हित करनेका हो जाता है । जब उसकी सब चेष्टाएँ प्राणिमात्रके हितमें हो जाती हैंतब उसकी भगवान्‌की सर्वभूतसुहृत्ता-शक्तिके साथ एकता हो जाती है । उसके उस स्वभावमें भगवान्‌की सुहृत्ता-शक्ति कार्य करने लगती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे