।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल दशमीवि.सं.२०७१सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 वास्तवमें भगवान्‌की वह सर्वभूतसुहृत्ता-शक्ति मनुष्य-मात्रके लिये समान रीतिसे खुली हुई हैपरन्तु अपने अहंकार और राग-द्वेषके कारण उस शक्तिमें बाधा लग जाती है अर्थात् वह शक्ति कार्य नहीं करती । महापुरुषोंमें अहंकार (व्यक्तित्व) और राग-द्वेष नहीं रहतेइसलिये उनमें यह शक्ति कार्य करने लग जाती है ।



अनेक मनुष्य-जन्मोंमें किये हुए जो कर्म (फल-अंश और संस्कार-अंश) अन्तःकरणमें संगृहीत रहते हैंवे संचित कर्म कहलाते हैं । उनमें फल-अंशसे तो ‘प्रारब्ध’ बनता है और संस्कार-अंशसे ‘स्फुरणा’ होती रहती है । उन स्फुरणाओंमें भी वर्तमानमें किये गये जो नये क्रियमाण कर्म संचितमें भरती हुए हैंप्रायः उनकी ही स्फुरणा होती है । कभी-कभी संचितमें भरती हुए पुराने कर्मोंकी स्फुरणा भी हो जाती है* । जैसे-किसी बर्तनमें पहले प्याज डाल दें और उसके ऊपर क्रमशः गेहूँचनाज्वारबाजराडाल दें तो निकालते समय जो सबसे पीछे डाला थावही (बाजरा) सबसे पहले निकलेगापर बीचमें कभी-कभी प्याजका भी भभका आ जायगा । परन्तु यह दृष्टान्त पूरा नहीं घटताक्योंकि प्याज,गेहूँ आदि सावयव पदार्थ हैं और संचित कर्म निरवयव हैं । यह दृष्टान्त केवल इतने ही अंशमें बतानेके लिये दिया है कि नये क्रियमाण कर्मोंकी स्फुरणा ज्यादा होती है और कभी-कभी पुराने कर्मोंकी भी स्फुरणा होती है ।

इसी तरह जब नींद आती है तो उसमें भी स्फुरणा होती है । नींदमें जाग्रत्-अवस्थाके दब जानेके कारण संचितकी वह स्फुरणा स्वप्नरूपसे दीखने लग जाती है,उसीको स्वप्नावस्था कहते हैं । स्वप्नावस्थामें बुद्धिकी सावधानी न रहनेके कारण क्रमव्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते । जैसे शहर तो दिल्लीका दीखता है और बाजार बम्बईका तथा उस बाजारमें दूकानें कलकत्ताकी दीखती हैं,कोई जीवित आदमी दीख जाता है अथवा किसी मरे हुए आदमीसे मिलना हो जाता हैबातचीत हो जाती हैआदि-आदि ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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स्फुरणा संचितके अनुसार भी होती है और प्रारब्धके अनुसार भी । संचितके अनुसार जो स्फुरणा होती हैवह मनुष्यको कर्म करनेके लिये बाध्य नहीं करती । परन्तु संचितकी स्फुरणामें भी यदि राग-द्वेष हो जायँ तो वह ‘संकल्प’ बनकर मनुष्यको कर्म करनेके लिये बाध्य कर सकती है । प्रारब्धके अनुसार जो स्फुरणा होती हैवह (फल-भोग करानेके लिये) मनुष्यको कर्म करनेके लिये बाध्य करती हैपरन्तु वह विहित कर्म करनेके लिये ही बाध्य करती हैनिषिद्ध कर्म करनेके लिये नहीं । कारण कि विवेकप्रधान मनुष्यशरीर निषिद्ध कर्म करनेके लिये नहीं है । अतः अपनी विवेकशक्तिको प्रबल करके निषिद्धका त्याग करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर है और ऐसा करनेमें वह स्वतन्त्र है ।

 जाग्रत्-अवस्थामें भी जाग्रत्स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाएँ होती हैंजैसे मनुष्य जाग्रत्-अवस्थामें बड़ी सावधानीसे काम करता है तो यह जाग्रत्‌में जाग्रत्-अवस्था है । जाग्रत्-अवस्थामें मनुष्य जिस कामको करता हैउस कामके अलावा अचानक जो दूसरी स्फुरणा होने लगती हैवह जाग्रत्‌में स्वप्न-अवस्था है । जाग्रत्-अवस्थामें कभी-कभी काम करते हुए भी उस कामकी तथा पूर्वकर्मोंकी कोई भी स्फुरणा नहीं होतीबिलकुल वृत्ति-रहित अवस्था हो जाती हैवह जाग्रत्‌में सुषुप्ति-अवस्था है ।

 कर्म करनेका वेग ज्यादा रहनेसे जाग्रत्-अवस्थामें जाग्रत् और स्वप्न-अवस्था तो ज्यादा होती है पर सुषुप्ति-अवस्था बहुत थोड़ी होती है । अगर कोई साधक जाग्रत्‌की स्वाभाविक सुषुप्तिको स्थायी बना ले तो उसका साधन बहुत तेज हो जायगाक्योंकि जाग्रत्-सुषुप्तिमें साधकका परमात्माके साथ निरावरणरूपसे स्वतः सम्बन्ध होता है । ऐसे तो सुषुप्ति-अवस्थामें भी संसारका सम्बन्ध टूट जाता हैपरंतु बुद्धि-वृत्ति अज्ञानमें लीन हो जानेसे स्वरूपका स्पष्ट अनुभव नहीं होता । जाग्रत्-सुषुप्तिमें बुद्धि जाग्रत् रहनेसे स्वरूपका स्पष्ट अनुभव होता है ।

यह जाग्रत्-सुषुप्ति समाधिसे भी विलक्षण हैक्योंकि यह स्वतः होती है और समाधिमें अभ्यासके द्वारा वृत्तियोंको एकाग्र तथा निरुद्ध करना पड़ता है । इसलिये समाधिमें पुरुषार्थ साथमें रहनेके कारण शरीरमें स्थिति होती हैपरन्तु जाग्रत्-सुषुप्तिमें अभ्यास और अहंकारके बिना वृत्तियाँ स्वतः निरुद्ध होनेके कारण स्वरूपमें स्थिति होती हैं अर्थात् स्वरूपका अनुभव होता है ।