।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल एकादशीवि.सं.२०७१मंगलवार
श्रीहरिशयनी एकादशी-व्रत (सबका)
कर्म-रहस्य


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 जाग्रत्-अवस्थामें हरेक मनुष्यके मनमें अनेक तरहकी स्फुरणाएँ होती रहती हैं । जब जाग्रत्-अवस्थामें शरीर,इन्द्रियाँ और मनपरसे बुद्धिका अधिकार हट जाता हैतब मनुष्य जैसा मनमें आता हैवैसा बोलने लगता है । इस तरह उचित-अनुचितका विचार करनेकी शक्ति काम न करनेसे वह‘सीधा-सरल पागल’ कहलाता है । परन्तु जिसके शरीर,इन्द्रियाँ और मनपर बुद्धिका अधिकार रहता हैवह जो उचित समझता हैवही बोलता है और जो अनुचित समझता हैवह नहीं बोलता । बुद्धि सावधान रहनेसे वह सावचेत रहता हैइसलिये वह ‘चतुर पागल’ है !

इस प्रकार मनुष्य जबतक परमात्मप्राप्ति नहीं कर लेतातबतक वह अपनेको स्फुरणाओंसे बचा नहीं सकता । परमात्मप्राप्ति होनेपर बुरी स्फुरणाएँ सर्वथा मिट जाती हैं । इसलिये जीवन्मुक्त महापुरुषके मनमें अपवित्र बुरे विचार कभी आते ही नहीं । अगर उसके कहलानेवाले शरीरमें प्रारब्धवश (व्याधि आदि किसी कारणवश) कभी बेहोशी,उन्माद आदि हो जाता है तो उसमें भी वह न तो शास्त्रनिषिद्ध बोलता है और न शास्त्रनिषिद्ध कुछ करता ही हैक्योंकि अन्तःकरण शुद्ध हो जानेसे शास्त्रनिषिद्ध बोलना या करना उसके स्वभावमें नहीं रहता ।

संचितमेंसे जो कर्म फल देनेके लिये सम्मुख होते हैं,उन कर्मोंको प्रारब्ध कर्म कहते हैं* । प्रारब्ध कर्मोंका फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें सामने आता है;परन्तु उन प्रारब्ध कर्मोंको भोगनेके लिये प्राणियोंकी प्रवृत्ति तीन प्रकारसे होती है‒(१) स्वेच्छापूर्वक (२) अनिच्छा-(दैवेच्छा-)पूर्वक और (३) परेच्छापूर्वक । उदाहरणार्थ‒

 (१) किसी व्यापारीने माल खरीदा तो उसमें मुनाफा हो गया । ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारीने माल खरीदा तो उसमें घाटा लग गया । इन दोनोंमें मुनाफा होना और घाटा लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धके फल हैं;परन्तु माल खरीदनेमें उनकी प्रवृत्ति स्वेच्छापूर्वक हुई है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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        * ‘प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः’ अर्थात् अच्छी तरहसे फल देनेके लिये जिसका आरम्भ हो चुका हैवह ‘प्रारब्ध’ है ।