।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल द्वादशीवि.सं.२०७१बुधवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 (२) कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो आगे  आनेवाली नदीमें बाढ़के प्रवाहके कारण एक धनका टोकरा बहकर आया और उस सज्जनने उसे निकाल लिया । ऐसे ही कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो उसपर वृक्षकी एक टहनी गिर पडी और उसको चोट लग गयी । इन दोनोंमें धनका मिलना और चोट लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धके फल हैंपरन्तु धनका टोकरा मिलना और वृक्षकी टहनी गिरना‒यह प्रवृत्ति अनिच्छा-(दैवेच्छा-) पूर्वक हुई है ।

(३) किसी धनी व्यक्तिने किसी बच्चेको गोद ले लिया अर्थात् उसको पुत्र-रूपमें स्वीकार कर लियाजिससे उसका सब धन उस बच्चेको मिल गया । ऐसे ही चोरोंने किसीका सब धन लूट लिया । इन दोनोंमें बच्चेको धन मिलना और चोरीमें धनका चला जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धके फल हैंपरन्तु गोदमें जाना और चोरी होना‒यह प्रवृत्ति परेच्छापूर्वक हुई है ।

यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिये कि कर्मोंका फल ‘कर्म’ नहीं होताप्रत्युत ‘परिस्थिति’ होती है अर्थात् प्रारब्ध कर्मोंका फल परिस्थितिरूपसे सामने आता है । अगर नये (क्रियमाण) कर्मको प्रारब्धका फल मान लिया जाय तो फिर ‘ऐसा करोऐसा मत करो’यह शास्त्रोंकागुरुजनोंका विधि-निषेध निरर्थक हो जायगा । दूसरी बातपहले जैसे कर्म किये थेउन्हींके अनुसार जन्म होगा और उन्हींके अनुसार कर्म होंगे तो वे कर्म फिर आगे नये कर्म पैदा कर देंगे,जिससे यह कर्म-परम्परा चलती ही रहेगी अर्थात् इसका कभी अन्त ही नहीं आयेगा ।

प्रारब्ध कर्मसे मिलनेवाले फलके दो भेद हैं‒प्राप्त फल और अप्राप्त फल । अभी प्राणियोंके सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही हैवह ‘प्राप्त’ फल है और इसी जन्ममें जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्यमें आनेवाली है वह ‘अप्राप्त’ फल है ।

क्रियमाण कर्मोंका जो फल-अंश संचितमें जमा रहता हैवही प्रारब्ध बनकर अनुकूलप्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितिके रूपमें मनुष्यके सामने आता है । अतः जबतक संचित कर्म रहते हैंतबतक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थितिके रूपमें परिणत होता ही रहता है । यह परिस्थिति मनुष्यको सुखी-दुःखी होनेके लिये बाध्य नहीं करती । सुखी-दुःखी होनेमें तो परिवर्तनशील परिस्थितिके साथ सम्बन्ध जोड़ना ही मुख्य कारण है । परिस्थितिके साथ सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़नेमें यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन हैपराधीन नहीं है । जो परिवर्तनशील परिस्थितिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता है । परन्तु जो परिस्थितिके साथ सम्बन्ध नहीं मानतावह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होताअतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्थामें होती है,जो कि उसका स्वरूप है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे