।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण चतुर्थीवि.सं.२०७१गुरुवार
नाम-महिमा



राम राम राम  ..................
एक भी श्वास खाली खोय ना खलक बीच,
कीचड़ कलंक अंक  धोय  ले  तो  धोय ले;
उर अँधियारो पाप-पुंज  सों  भरी  है देह,
ज्ञानकी चराखाँ चित्त जोय ले तो जोय ले ।
मानखा जनम फिर ऐसो ना मिलेगा मूढ़,
परम प्रभुजीसे प्यारो होय ले तो होय ले;
छिन भंग देह ता में  जनम  सुधारिबो है,
बीजके झबाके मोती पोय ले तो पोय ले ॥

भाई-बहिनोंने पैसोंको बहुत कीमती समझा है । पैसा इतना कीमती नहीं हैजितना कीमती हमारा समय है । मनुष्य-जन्मका जो समय हैवह बहुत ही कीमती है । मनुष्य-जन्मके समयको देकर हम मूर्खसे विद्वान् बन सकते हैं । समयको देकर हम धनी बन झकते हैं । समय लगनेपर एक आदमीके परिवारके सैकड़ों लोग हो जाते हैं । समयको लगाकर हम संसारमें मानआदरप्रतिष्ठा आदि प्राप्त कर सकते हैंबहुत बड़ी जमीन-जायदाद आदिको अपने अधिकारमें कर सकते हैं । समय लगनेसे स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है । इतना ही नहींमनुष्य-शरीरका समय लगानेसे हो जाय परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिजिसके बाद प्राप्त करना कुछ बाकी न रहे । इस प्रकार समय लगाकर सांसारिक सब चीजें प्राप्त हो सकती हैंपरन्तु सब-की-सब चीजेंरुपये-पैसे आदि देनेपर भी जीनेका समय नहीं मिलता ।

जैसेआपने सत्तर-पचहत्तर वर्षोंकी उम्रमेंसे साठ वर्ष रुपये कमानेमें लगायेसाठ वर्षोंमें बहुत जमीन-जायदाद इकट्ठी कर लीमकान बना लियेबहुत सम्पत्ति इकट्ठी कर ली । अब उस सम्पत्तिको पीछे दे करके अगर हम साठ घंटे भी और जीना चाहें तो जी सकते हैं क्या ? इसमें थोड़ा-सा विचार करें । जिस सम्पत्तिके संग्रहमें साठ वर्ष खर्च हुएउस सम्पूर्ण सम्पत्तिको देकर हम साठ घंटे भी खरीद सकते हैं क्या एक वर्षकी कीमतमें हम एक घंटा भी लेना चाहें तो नहीं मिल सकता । जिस पूँजीके बटोरनेमें एक वर्ष लगाउस पूँजीके बदलेमें एक मिनट और साठ वर्षकी पूँजीसे साठ मिनट लेना चाहें तो नहीं मिल सकते तो हमारा समय बरबाद हो गया न ?

वैश्य भाई ऐसा व्यापार नहीं करते कि जिसमें पूँजी तो लग जाय और पीछे कौडी एक बचे नहीं । व्यापारमें तो कुछ-न-कुछ पैदा होना ही चाहियेपरन्तु इधर साठ वर्षोंकी उम्रमें जितनी पूँजी इकट्ठी कीउसके बदलेमें साठ महीने मिल जाये साठ दिन मिल जायें तो भी बारहवाँ अंश तो मिलापरन्तु साठ दिन तो दूर रहे साठ घंटासाठ मिनट भी नहीं मिलते और समय हमारा लग गया साठ वर्षकातो हम बहुत घाटेमें चले गये । बहुत क्याकेवल कोरा घाटा-ही-घाटा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे