।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण चतुर्थीवि.सं.२०७१गुरुवार
नाम-महिमा



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
हमने एक सन्तकी बात सुनी है । इससे पहले जमानेमें सेकेंड क्लासका रिजर्व होता था । एक सन्तको कहीं जाना था तो गृहस्थ भाइयोंने उनको सेकेंड क्लासमें बैठा दिया । एक सीटपर वे बैठ गये । उनके सामने एक मुसलमान बैठा हुआ था । उसका जब नमाजका समय हुआ तो वह अपना अँगोछा बिछाकर नमाज पढ़ने लगा तो सामने सीटपर बैठे हुए सन्त उठकर खड़े हो गये । जबतक वह नमाज पड़ता रहातबतक बाबाजी खड़े रहे और जब वह मुसलमान बैठ गयातब बाबाजी भी बैठ गये । मुसलमानने पूछा ‒‘महाराज ! आप खड़े क्यों हुए ? तो बाबाजीने मुसलमानसे पूछा‒‘तुम खड़े क्यों हुए ? मुसलमानने कहा‒‘मैं परवरदिगारकी बन्दगीमें था ।’ तो सन्तने कहा‒‘मैं तुम्हारी बन्दगीमें था ।’ जिस वक्त कोई प्रभुको याद करता है, उस समय उस मनुष्यको मामूली नहीं समझना चाहियेक्योंकि वह उस समय भगवान्‌के साथ है ! तुम उस प्रभुको याद कर रहे थे तो मैं तुम्हारी हाजिरीमें खड़ा था ।

कोई जब भगवान्‌से प्रार्थना करता हैभगवान्‌का भजन करता है तो मनुष्य चाहे किसी भाषामें प्रार्थना करे;क्योंकि अपनी-अपनी भाषामें अपने-अपने इष्टका नाम अलग-अलग है । परमात्मा तो एक ही है । उसके साथ जिसका सम्बन्ध जुड़ा है तो क्या वह साधारण मनुष्य है ?जैसेदूसरे मनुष्य होते हैंवैसे ही वह रहा नहीं ।

जैसेलोगोंमें यह देखा जाता है कि राजकीय कोई बड़ा अधिकारी होता है तो लोगोंपर उसका असर पड़ता है कि ये बड़े अफसर आ गयेये बड़े मिनिस्टर आ गये । ऐसे ही जो भगवान्‌में लगे हैंवे बड़े राजाके हैंजिससे बड़ा कोई है ही नहीं‒‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥’ (गीता ११ । ४३) वह उस भगवान्‌का प्यारा है जिसके लिये स्वयं भगवान् कहते हैं‒‘भगत मेरे मुकुटमणि ।’ भगवान् स्वयं जिनके लिये इतना आदर देते हैंउस सन्तके अगर हमको दर्शन हो जायँ तो कितना अहोभाग्य है हमारा ! परन्तु मनुष्य उसको पहचानता नहीं । सन्तोंका पता नहीं लगता । सच्ची बात है । सन्तोंका क्या पता लगे ?

महाराजक्या बतावें विचित्रविलक्षण-विलक्षण सन्त होते हैं और साधारण व्यक्ति-जैसे पड़े रहते हैं । पता ही नहीं लगता उनका कि ये क्या हैंक्योंकि बाहरसे तो वे मामूली दीखते हैं‒
सन्तोंकी गत रामदास जगसे लखी न जाय ।
बाहर तो संसार-सा   भीतर  उलटा  थाय ॥

‘ऐसे निराले सेठको वैसा ही बिरला जानता’ वह इतना मालदार हैउसको तो वैसा ही कोई बिरला जानता हैहर एक नहीं जानता । हर एकको उनकी पहचान नहीं होती । इस प्रकार सज्जनो ! जो नाम हम सबके लिये सुलभ हैं‘सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥’ सुमिरन करनेमें सबको सुलभ हैचाहे वह किसी वर्णका होकिसी जातिका होकिसी आश्रमका होकिसी देशका होकिसी वेशमें होकोई भी क्यों न हो । वह भी अगर भगवान्‌के नाममें लग जाय तो नाम सभीको सुख देनेवाला है‒‘सुखद सब काहू’ ‘लोक लाहु परलोक निबाहू’लोक-परलोकमें लाभ देनेवाला हैसब तरहसे निर्वाह करानेवाला है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे