।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
श्रीराम-विवाह, श्रीस्कन्दषष्ठी-व्रत

मानसमें नाम-वन्दना


                  

 (गत ब्लॉगसे आगेका)

संत-संगकी महिमा

श्रीचैतन्य-महाप्रभुके कई शिष्य हुए हैं । उनमें एक यवन हरिदासजी महाराज भी थे । वे थे तो मुसलमान, पर चैतन्य-महाप्रभुके संगसे भगवन्नाममें लग गये । सनातन धर्मको स्वीकार कर लिया । उस समय बड़े-बड़े नवाब राज्य करते थे, उनको बड़ा बुरा लगा । लोगोंने भी शिकायत की कि यह काफिर हो गया । इसने हिन्दूधर्मको स्वीकार कर लिया । उन लोगोंने सोचा‒इसका कोई-न-कोई कसूर हो तो फिर अच्छी तरहसे इसको दण्ड देंगे ।’

एक वेश्याको तैयार किया और उससे कहा‒यह भजन करता है, इसको यदि तू विचलित कर देगी तो बहुत इनाम दिया जायगा ।’ वेश्याने कहा‒पुरुष जातिको विचलित कर देना तो मेरे बायें हाथका खेल है ।’ ऐसे कहकर वह वहाँ चली गयी जहाँ हरिदासजी एकान्तमें बैठे नाम-जप कर रहे थे । वह पासमें जाकर बैठ गयी और बोली‒महाराज, मुझे आपसे बात करनी है ।हरिदासजी बोले‒मुझे अभी फुरसत नहीं है ।ऐसा कहकर भजनमें लग गये । ऐसे उन्होंने उसे मौका दिया ही नहीं । तीन दिन हो गये, वे खा-पी लेते और फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥’ मन्त्र-जपमें लग जाते । ऐसे वेश्याको बैठे तीन दिन हो गये, पर महाराजका उधर खयाल ही नहीं है, नाममें ही रस ले रहे हैं । अब उस वेश्याका भी मन बदला कि तू कितनी निकृष्ट और पतित है । यह बेचारा सच्चे हृदयसे भगवान्‌में लगा हुआ है इसको विचलित कर नरकोंकी ओर तू ले जाना चाहती है, तेरी दशा क्या होगी ? इतना भगवन्नाम सुना, ऐसे विशुद्ध संतका संग हुआ, दर्शन हुए । अब तो वह रो पड़ी एकदम ही महाराज ! मेरी क्या दशा होगी, आप बताओ ?’

जब महाराजने ऐसा सुना तो बोले‒हाँ हाँ ! बोल अब फुरसत है मुझे । क्या पूछती हो ?’ वह कहने लगी‒मेरा कल्याण कैसे होगा ? मेरी ऐसी खोटी बुद्धि है, जो आप भजनमें लगे हुएको भी नरकमें ले जानेका विचार कर रही थी । मैं आपको पथभ्रष्ट करनेके लिये आयी । नवाबने मुझे कहा कि तू उनको विचलित कर दे, तेरेको इनाम देंगे । मेरी दशा क्या होगी ?’ तो उन्होंने कहा तुम नाम‒जप करो, भगवान्‌का नाम लो ।

फिर बोली-‒अब तो मेरा मन भजन करनेका ही करता है, भविष्यमें कोई पाप नहीं करूँगी, कभी नहीं करूँगी ।हरिदासजीने उसे माला और मन्त्र दे दिया ।  अच्छा यह ले माला ! बैठ जा यहाँ और कर हरि भजन ।उसे वहाँ बैठा दिया और वह‒हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ इस मन्त्रका जप करने लगी । हरिदासजीने सोचा‒यहाँ मेरे रहनेसे नवाबको दुःख होता है तो छोड़ो इस स्थानको और दूसरी जगह चलो ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे