।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७१, रविवार
विजया एकादशी-व्रत (सबका)
मानसमें नाम-वन्दना

      

(गत ब्लॉगसे आगेका)

फिर कहते हैं‒

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी ।
सकल जीव  जग  दीन  दुखारी ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २३ । ७)

संसारमें जितने जीव हैं, उनके हृदयमें आनन्दराशि परमात्मा विराजमान हैं । अस प्रभु’ कहनेका तात्पर्य है कि ऐसे आनन्दराशि प्रभुके हृदयमें रहते हुए संसारमें जितने जीव हैं, वे सब-के-सब दीन हो रहे हैं और दुःखी हो रहे हैं । महान् आनन्दराशि भगवान्‌के भीतर रहते हुए दीन हो रहे हैं । आनन्दराशि निर्गुण परमात्मा सबके हृदयमें रहकर भी जीवोंका दुःख दूर नहीं कर सके, दरिद्रता नहीं मिटा सके । परंतु भगवन्नामका यदि यत्नसे निरूपण किया जाय तो वह आनन्द प्रत्यक्ष प्रकट हो जाता है । दुःख और दरिद्रता सर्वथा मिट जाते हैं ।

नाम   निरूपन    नाम  जतन  तें ।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २३ । ८)

निर्गुणतत्त्वमें निरूपणकी मुख्यता है । निरूपण यानी उसका स्वरूप क्या है, उसकी महिमा क्या है, वह तत्त्व क्या है ? ठीक गहरा उतरकर तत्त्वको समझा जाय और उसीमें तल्लीन होकर नाम जपा जाय मानो सब जगह परमात्मा परिपूर्ण हैं, ऐसे जपनेसे सोउ प्रगटत’‒वह आनन्द प्रकट हो जाता है । इस प्रकार खयाल रखकर उसका विशेष यत्नपूर्वक निरूपण किया जाय तो निर्गुणतत्त्व आनन्दरूपसे हृदयमें प्रकट हो जाता है । कंचन खान खुली घट माहीं रामदासके टोटो नाहीं’ घटमें, हृदयमें आनन्दकी खान खुल गयी । अब घाटा किस बातका रहा बताओ ! भीतरसे ही जब आनन्द उमड़ता है तो सांसारिक सुखकी कामना किञ्चिन्मात्र नहीं रहती । आप कह सकते हैं, ऐसे आनन्दका हमें अनुभव नहीं । ठीक है, आनन्द तो प्रकट नहीं हुआ; परंतु शीत ज्वर कभी आया ही होगा ! शीत ज्वर जब आता है, तब भीतरसे सर्दी लगती है, ऊपरसे कई कम्बल, रजाई आदि ओढ़नेपर भी भीतरसे कँपकँपी आती रहती है । बाहर कपड़ा ओढ़नेसे क्या हो ! भीतरसे शीत हो, तब बाहरकी गर्मी बेचारी क्या करे ! गर्म-गर्म जल भीतर जानेसे कुछ शान्ति हो सकती है, ऐसे जिसके भीतर आनन्द प्रकट हो जाय तो उसे बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियोंके संयोगसे मिलनेवाले सुखकी आवश्यकता नहीं रहती । ऐसे बाहरकी प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिमें भी उसे दुःख नहीं हो सकता । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥’ (गीता ६ । २२) । बड़े भारी दुःख आनेपर भी किञ्चिन्मात्र दुःख नहीं हो सकता; क्योंकि उसके भीतर आनन्दके फव्वारे छूटते हैं । उसके दर्शन, भाषण, स्पर्श, संगसे आनन्द आता है । उसका नाम लेनेसे आनन्द आता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे