।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७१, मंगलवार
महाशिवरात्रि-व्रत
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य

      

(२३ जनवरी-२०१५के ब्लॉगसे आगेका)

अहंकारका आश्रय लेनेसे जीव अपनेको और अहम्‌को अलग-अलग नहीं देखता, प्रत्युत एक ही देखता है । अतः उसमें परिच्छिन्नता, व्यक्तित्व, पराधीनता, अभाव, बन्धन, कर्तृत्व, भोकृत्व आदि दोष आ ही जाते हैं । अहंकारका आश्रय छूटते ही सब दोष निवृत्त हो जाते हैं । अहंकारका आश्रय (पराश्रय) छोड़नेके लिये निराश्रय’ अथवा स्वाश्रय’ होना आवश्यक है ।

कर्मयोगमें निराश्रय’ अर्थात् कर्मफलके आश्रयका त्याग होता है‒‘अनाश्रितः कर्मफलम्’ (गीता ६ । १); ‘त्यक्ला कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः’ (गीता ४ । २०) । जो भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तु है, वह सब कर्मफल’ है । कर्मफलका आश्रय लेनेसे बार-बार जन्म-मरण होता है और मिलता कुछ नहीं‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । कारण कि प्रत्येक कर्मका आदि और अन्त होता है, फिर उससे मिलनेवाला फल अविनाशी कैसे हो सकता है ? निराश्रय होते ही स्वतःसिद्ध स्वाश्रय’ (स्वरूपके आश्रय) का अनुभव हो जाता है ।

ज्ञानयोगमें स्वाश्रय’ अर्थात् स्वरूपका आश्रय होता है । स्वरूपके आश्रयसे साधकको मुक्ति प्राप्त होती है । परन्तु स्वरूपके आश्रयमें अहंकारका लेश रह सकता है; क्योंकि इसमें मुक्ति (स्वतन्त्रता) का अभिमानी रह जाता है । इसीलिये गीताने अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) को ऊँचा नहीं माना है, प्रत्युत वासुदेवः सर्वम्’ (सब कुछ परमात्मा ही हैं) को ऊँचा माना है; क्योंकि इसमें अहंकार (व्यक्तित्व) सर्वथा नहीं रहता ।

भक्तियोगमें स्वाश्रय’ अर्थात् स्वकीय परमात्माका आश्रय होता है । स्व’ (स्वरूप) का आश्रय लेनेकी अपेक्षा स्वकीय’ का आश्रय लेना श्रेष्ठ है; क्योंकि स्व’ का आश्रय लेनेसे मनुष्य मुक्ति (अखण्डरस) प्राप्त कर सकता है, पर अलौकिक प्रेम (अनन्तरस) प्राप्त नहीं कर सकता[*] । प्रेमकी प्राप्ति स्वकीय परमात्माका आश्रय लेनेसे ही होती है । प्रेम प्राप्त होनेपर अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है[†]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे



[*] भगवान्‌ने मुक्ति तो पूतनाको भी दे दी थी, पर यशोदाको अपने-आपको ही दे दिया ।

[†] ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु    मद्भक्तिं  लभते  पराम् ॥
                                             (गीता १० । ५४)