।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७१, गुरुवार 
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य

      

(गत ब्लॉगसे आगेका)

कुछ भी चिन्तन न करनेके बाद यदि अपने-आप कोई चिन्तन आ जाय तो साधक उससे न राग करे, न द्वेष करे; न उसको अच्छा माने, न बुरा माने और न अपनेमें माने । चिन्तन करना नहीं है, पर चिन्तन हो जाय तो उसका कोई दोष नहीं है । अपने-आप हवा बहती है, सरदी-गरमी आती है, वर्षा होती है तो उसका हमें कोई दोष नहीं लगता । दोष तो करनेका लगता है । अतः चिन्तन हो जाय तो उसकी उपेक्षा रखे, उसके साथ अपनेको मिलाये नहीं अर्थात् ऐसा न माने कि चिन्तन मेरेमें होता है और मेरा होता है । चिन्तन मनमें होता है और मनके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है ।

साधकमें चिन्तन न करनेका भी आग्रह नहीं होना चाहिये । उसमें न मन लगानेका आग्रह हो, न मन हटानेका आग्रह हो; न मनको स्थिर करनेका आग्रह हो, न मनकी चंचलता मिटानेका आग्रह हो; न किसी वृत्तिको लानेका आग्रह हो, न किसी वृत्तिको हटानेका आग्रह हो; न आँख-कान खोलनेका आग्रह हो, न आँख-कान बन्द करनेका आग्रह हो; न कुछ करनेका आग्रह हो, न कुछ नहीं करनेका आग्रह हो‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेहकश्चन’ (गीता ३ । १८) । इस प्रकार कोई भी आग्रह न रखकर साधक उदासीन हो जाय तथा चुप हो जाय‒

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥
                                               (गीता १४ । २३)

जो उदासीनकी तरह स्थित है और जो गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं‒इस भावसे जो अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता ।’

जैसे नींद लेनेके लिये कोई उद्योग, परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक नींद आती है, ऐसे ही चुप होनेके लिये कोई उद्योग नहीं करना है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक चुप, शान्त हो जाना है । साधक दिनमें कई बार, काम करते-करते एक-दो सेकेण्डके लिये भी चुप, शान्त हो जाय तो उसको वास्तवमें चुप होना आ जायगा अर्थात् जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद तथा स्वतःसिद्ध तत्त्वका अनुभव हो जायगा । फिर वह सब कार्य करते हुए भी निरन्तर चुप रहेगा, यही समाधिसे भी ऊँची ‘सहजावस्था’ है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे