।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७१, मंगलवार
वर्णनातीतका वर्णन



[ साधकको चाहिये कि वह एकान्तमें बैठकर शुद्ध वृत्तिसे इस लेखको पड़े । केवल शब्दोंपर दृष्टि न रखकर अर्थ एवं तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखते हुए पढ़े, पढ़कर विचार करे और विचार करके बाहर-भीतरसे चुप हो जाय तो तत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थिरता जाग्रत् हो जायगी अर्थात् सहजावस्थाका अनुभव हो जायगा और मनुष्यजीवन सफल हो जायगा ।[*] ]

सत्-तत्त्व एक ही है । उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता; क्योंकि वह मन (बुद्धि) और वाणीका विषय नहीं है‒‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय २ । १), ‘मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥’ (मानस १ । ३४१ । ४) । जहाँ वर्णन है, वहाँ तत्त्व नहीं है और जहाँ तत्त्व है, वहाँ वर्णन नहीं है । उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य नहीं है, इसलिये केवल उसका लक्ष्य करानेके लिये ही उसका वर्णन किया जाता है । परन्तु जब उसका लक्ष्य न करके कोरा सीख लेते हैं, तब वर्णन-ही-वर्णन होता है, तत्त्व नहीं मिलता । उसका लक्ष्य रखकर वर्णन करनेसे वर्णन तो नहीं रहता, पर तत्त्व रह जाता है । तात्पर्य है कि उसका वर्णन करते-करते जब वाणी रुक जाती है, उसका चिन्तन करते-करते जब मन रुक जाता है, तब स्वतः वह तत्त्व रह जाता है और प्राप्त हो जाता है । वास्तवमें वह पहलेसे ही प्राप्त था, केवल अप्राप्तिका वहम मिट जाता है ।

प्रकृतिजन्य कोई भी क्रिया, पदार्थ, वृत्ति, चिन्तन उस तत्त्वतक नहीं पहुँचता । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वतक प्रकृतिजन्य पदार्थ कैसे पहुँच सकता है ? अतः तत्त्वका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत प्राप्ति होती है । उसकी प्राप्ति भी अप्राप्तिकी अपेक्षासे कही जाती है अर्थात् उसको अप्राप्त माना है, इसलिये उसकी प्राप्ति कही जाती है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे



[*] यहाँ प्रश्र होता है कि जो वर्णनातीत है, उसका वर्णन कैसे ? और जिसका वर्णन होता है, वह वर्णनातीत कैसे ? इसका उत्तर है कि यद्यपि तत्त्व वर्णनातीत है, तथापि उसका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ उसका वर्णन किया गया है । गीतामें भी भगवान्‌ने अचिन्त्यरूपं अनुस्मरेत्’ (८ । ९) पदोंसे अचिन्त्यका चिन्तन करनेकी बात कही है तो जो अचिन्त्य है, उसका चिन्तन कैसे ? और जिसका चिन्तन होता है, वह अचिन्त्य कैसे ? इसका तात्पर्य है कि यद्यपि परमात्मा अचिन्त्य है, तथापि चिन्तन करनेवाला उसको लक्ष्य बना सकता है । इसी तरह गीतामें गुणातीतके लक्षण बताये गये हैं ( १४ । २१-२५) तो जो गुणातीत है, उसके लक्षण कैसे ? और जिसके लक्षण हैं, वह गुणातीत कैसे ? क्योंकि लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं । इसका तात्पर्य है कि लोग पहले जिस शरीर और अन्तःकरणमें गुणातीतकी स्थिति मानते थे, उसी शरीर और अन्तःकरणके लक्षणोंका वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है । अतः वे लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं । ऐसे ही समतामें स्थित मनुष्यकी स्थिति पहचाननेके लिये बताया कि जिसका मन समतामें स्थित है, वह समरूप ब्रह्ममें ही स्थित है ( ५ । १९) ।