।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
होलष्टकारम्भ
वर्णनातीतका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वह एक ही तत्त्व प्रकाश्यकी अपेक्षासे प्रकाशक’ आश्रितकी अपेक्षासे आश्रय’ और आधेयकी अपेक्षासे आधार’ कहा जाता है । प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो व्याप्य, विनाशी एवं अनेक हैं, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार व्यापक, अविनाशी एवं एक है । प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो नहीं रहेंगे, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार रह जायगा; किन्तु प्रकाशक, आश्रय और आधार‒ये नाम नहीं रहेंगे, प्रत्युत एक तत्त्व रहेगा । तात्पर्य है कि तत्त्व न प्रकाश्य है, न प्रकाशक है; न आश्रित है, न आश्रय है; न आधेय है, न आधार है ।

वह एक ही तत्त्व शरीरके सम्बन्धसे शरीरी, क्षेत्रके सम्बन्धसे क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ, क्षरके सम्बन्धसे अक्षर, दृश्यके सम्बन्धसे द्रष्टा और साक्ष्यके सम्बन्धसे साक्षी कहलाता है । तात्पर्य है कि तत्त्व न शरीर है, न शरीरी है; न क्षेत्र है, न क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ है; न क्षर है, न अक्षर है; न दृश्य है, न द्रष्टा है; न साक्ष्य है, न साक्षी है ।

वह तत्त्व अनेककी अपेक्षासे एक है । जडकी अपेक्षासे वह चेतन है । असत्‌की अपेक्षासे वह सत् है । अभावकी अपेक्षासे वह भावरूप है । अनित्यकी अपेक्षासे वह नित्य है । उत्पन्न वस्तुकी अपेक्षासे वह अनुत्पन्न है । नाशवान्‌की अपेक्षासे वह अविनाशी है । असत्-जड-दुःखरूप संसारकी अपेक्षासे वह सत्-चित्-आनन्द-रूप है । प्राकृत पदार्थोंकी अपेक्षासे वह प्राप्त अथवा अप्राप्त है । कठिनताकी अपेक्षासे उसको सुगम कहते हैं, नहीं तो जो नित्यप्राप्त है, उसमें क्या कठिनता और क्या सुगमता ? तात्पर्य है कि तत्त्व न अनेक है, न एक है; न जड है, न चेतन है; न असत् है न सत् है; न अभावरूप है, न भावरूप है; न अनित्य है, न नित्य है; न उत्पन्न है, न अनुत्पन्न है; न नाशवान् है, न अविनाशी है; न असत्-जड-दुःखरूप है, न सत्-चित्-आनन्दरूप है; न प्राप्त है, न अप्राप्त है; न कठिन है, न सुगम है अर्थात् शब्दोंके द्वारा उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता ।

वह तत्त्व परतःसिद्धकी अपेक्षासे स्वतःसिद्ध है । अस्वाभाविककी अपेक्षासे वह स्वाभाविक है । अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकका आरोप कर लिया तो बन्धन’ हो गया, स्वाभाविकमें अस्वाभाविकताका आरोप कर लिया तो संसार’ हो गया और अस्वाभाविकताको अस्वीकार करके स्वाभाविकका अनुभव किया तो तत्त्व’ हो गया और अतत्त्वसे मुक्ति हो गयी अर्थात् है-ज्यों हो गया ! तत्त्व न परतःसिद्ध है, न स्वतःसिद्ध है; न स्वाभाविक है, न अस्वाभाविक है । परत:सिद्ध-स्वतःसिद्ध, स्वाभाविक-अस्वाभाविक तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे