।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
गोहत्या-एक अभिशाप




(गत ब्लॉगसे आगेका)
मेरे विचारमें तो जैसे भगवान्‌का आश्रय कल्याण करनेवाला है, ऐसे ही रुपयोंका आश्रय नरकोंमें और चौरासी लाख योनियोंमें ले जानेवाला है । रुपयोंका आश्रय, रुपयोंका भरोसा, रुपयोंका लोभ, रुपयोंकी आसक्ति, रुपयोंकी प्रियता ही पतन करनेवाली है, रुपये नहीं । कोई ऐसा दोष नहीं, कोई ऐसा पाप नहीं, कोई ऐसा दुःख नहीं, कोई ऐसी जलन नहीं, कोई ऐसा संताप नहीं, जो रुपयोंके लोभसे पैदा न होता हो । जितने दुःख हैं, वे सब-के-सब रुपयोंके लोभमें ही हैं । अगर लोभका त्याग करके धनको अच्छे कार्यमें लगाया जाय तो आपका धन सफल हो जाय, जीवन सफल हो जाय और दुनिया भी आफतसे बच जाय । एक दिन यह सब धन छूट जायगा, पर उससे कल्याण नहीं होगा । अगर छूटनेसे ही कल्याण होता हो तो सभी मरनेवालोंका कल्याण होना चाहिये; क्योंकि उनका शरीर, धन, सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्बी आदि सब छूट जाते हैं । परंतु इससे मुक्ति नहीं होती । मुक्ति भीतरसे त्याग करनेपर होती है । लोभ है भीतर और रुपये हैं बाहर । रुपये दोषी नहीं हैं, रुपयोंका जो लोभ है, जो प्रियता है, लगन है कि संख्या बढ़ती ही चली जाय‒यह वृत्ति ही महान् अनर्थ करनेवाली है । इसलिये सज्जनो ! आप सावधान हो जाओ तो बड़ी अच्छी बात है । तीस वर्षोंके भीतर-भीतर हम बड़े-बूढ़े तो शायद ही रहें, पर आगे आनेवाली पीढ़ीके लिये आपने क्या सोचा है ? उनकी क्या दशा होगी ? प्रत्यक्ष सोचनेकी बात है । परन्तु मनुष्य दीर्घ दृष्टिसे सोचता ही नहीं ! सरकारकी कुर्सी भी कितने दिन रहेगी ? पर अनर्थ कितना भारी हो जायगा‒इसकी तरफ खयाल ही नहीं करते । पर किसको समझायें ? किसको कहें ?

कौन सुनै कासौं कहूँ,   सुने  तो  समुझै  नाहिं ।
कहना सुनना समझना, मन ही का मन माहिं ॥

इसलिये भाइयो, चेत करो । होशमें आओ और स्वयं विचार करो कि क्या दशा होगी देशकी ? बहुत-सी सम्पत्ति तो नष्ट हो गयी है । अभी अगर बचा लो तो कुछ बच सकता है ।

केवल रुपयोंके लोभके कारण चमड़ेका, मांसका, गायोंका, बैलोंका व्यापार करते हैं; क्योंकि इसमें रुपये ज्यादा पैदा होते हैं । मांस, हड्डी, खून, जीभ, आँते, सींग, खुर, कलेजा, चमड़ा आदि अलग-अलग कर दिये जायँ तो बहुत दाम बँटते हैं । कसाईखानेके पास आते ही गायके चार हजार रुपये हो जाते हैं । केवल रुपयोंके लोभसे ही गोहत्या हो रही है ।

नरकोंके तीन दरवाजे बताये गये हैं‒काम, क्रोध और लोभ । इनमें भी महान् नरकोंका दरवाजा है‒भोग और संग्रहका लोभ । इसलिये आप लोगोंसे प्रार्थना है कि थोड़ा जाग्रत् हो जाओ । क्या करें ? एक तो चमड़ा काममें न लायें । एक बात और आयी मनमें कि जितने घरके सदस्य हैं, वे रोजाना एक-एक मुट्ठी चून (आटा) गायोंकी रक्षाके लिये निकालें और उनका संग्रह करके गोशाला आदिमें दे दें । यह बात भी मैंने अपनी प्रकृतिसे विपरीत कही है । काममें लायें तो बहुत अच्छा और नहीं लायें तो मर्जी आपकी । ऐसी बहुत-सी बातें हैं, आप लोग ज्यादा सोच सकते हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे