।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल तृतीयावि.सं.२०७२मंगलवार
श्रीपरशुराम-जयन्ती, अक्षयतृतीया
अहम् हमारा स्वरूप नहीं



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

यहाँ भगवान्‌ने चौबीस तत्वोंवाले शरीरको तथा उसके सात विकारोंको इदंतासे कहा है‒‘एतत् क्षेत्रम्’[*] । यहाँ विशेष ध्यान देनेकी बात है कि जब अहंकारका कारण महत्तत्त्व’ और मूल प्रकृति’ को भी इदंतासे कह दिया, तो फिर अहंकारके इदम्’ होनेमें कहना ही क्या है !  अहम्‌से नजदीक महत्तत्त्व है और महत्तत्त्वसे नजदीक प्रकृति है, वह प्रकृति भी एतत् क्षेत्रम् में है । तात्पर्य है कि अहम् (क्षेत्र) हमारा स्वरूप है ही नहीं । जो मनुष्य स्वयंको और अहम् (प्रकृति) को अलग-अलग जान लेता है, उसका फिर कभी जन्म नहीं होता और वह परमात्माको प्राप्त हो जाता है‒

य एवं वेत्ति पुरुषं   प्रकृतिं  च  गुणैः  सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
                                                (गीता १३ । २३)

इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य अलग-अलग जानता है, वह सब तरहका (शास्त्र-विहित) बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता ।’

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं         ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्ष च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
                                               (गीता १३ । ३४)

‘इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तर (विभाग) को तथा कार्य-कारणसहित प्रकृतिसे स्वयंको अलग जानते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं ।’

प्रश्न‒अहम् मेरा स्वरूप नहीं है‒इस बातपर दृढ़ कैसे रहा जाय ?

उत्तर‒ऐसा प्रश्न तभी उठता है, जब इस बातको अभ्याससाध्य मानें । वास्तवमें यह अभ्याससाध्य नहीं है, प्रत्युत विवेकसाध्य है । विवेकमें दृढ़ता-अदृढ़ता होती ही नहीं, प्रत्युत दृढ़ता ही होती है !  अतः अहम् मेरा स्वरूप नहीं है‒इस बातपर न दृढ़ रहना है, न अदृढ़ रहना है । यह बात है ही ऐसी‒इस तरह इसको स्वीकार कर लेना, जान लेना है । इससे विचलित नहीं होना है । कारण कि अपने विवेकको महत्त्व देनेसे स्पष्ट दीखता है कि अहम् मेरा स्वरूप नहीं है, प्रत्युत दृश्य है; क्योंकि इसका भान होता है ।

स्वरूप जल है, अहम् मिट्टी है और विवेक फिटकरी है । जैसे जलमें मिट्टी मिली हुई हो तो फिटकरी घुमानेसे मिट्टी स्वतः नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ जल शेष रह जाता है, ऐसे ही विवेकको महत्त्व देनेसे स्वरूपमें माना हुआ अहम् स्वतः नीचे बैठ जाता है और शुद्ध (निर्विकार) स्वरूप शेष रह जाता है । वास्तवमें अहम् है ही नहीं । अहम् केवल मान्यता (मानी हुई सत्ता) है । जैसा है, वैसा ज्यों-का-त्यों जान लेनेका नाम ही ज्ञान है । है और तरहका, जाने और तरहका‒यही अज्ञान है ।

योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥
                                         (महा उद्योग ४२ । ३७)

जो अन्य प्रकारका होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका मानता है, आत्माका अपहरण करनेवाले उस (आत्मघाती) चोरने कौन-सा पाप नहीं किया ? अर्थात् सब पाप कर लिये ।’

जैसा है, वैसा जाननेमें क्या परिश्रम है ? इसमें न कहीं जाना है, न कुछ लाना है, न कुछ करना है । केवल वास्तविक तत्त्वकी ओर लक्ष्य करना है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे


[*] लोग स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंको सबसे नजदीक (मैं’ रूपसे) मानते हैं, इसलिये भगवान्‌ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार आदिको ‘एतत्’ शब्दके अन्तर्गत लिया है ।