।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
कामना, जिज्ञासा और लालसा



मनुष्यके भीतर जो इच्छा रहती है, उसके तीन भेद हैं‒कामना, जिज्ञासा और लालसा । सांसारिक भोग और संग्रहकी ‘कामना’ होती है, स्वरूप (निर्गुण तत्त्व)-की जिज्ञासा’ होती है और भगवान् (सगुण तत्त्व)-की लालसा’ होती है ।

संसारकी जो कामना है, वह भूलसे पैदा हुई है । कारण कि हमारेमें एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है । परमात्माका अंश जीवात्मा है‒ममैवांशो जीवलोके’ और प्रकृतिका अंश शरीर है‒मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५ । ७)मैं क्या हूँ ?‒इस प्रकार स्वरूप (जीवात्मा)-को जाननेकी इच्छा जिज्ञासा’ है और भगवान् कैसे मिलें ? उनमें प्रेम कैसे हो ?‒इस प्रकार भगवान्‌को पानेकी इच्छा ‘लालसा’ है । जिज्ञासा और लालसा‒ये दोनों इच्छाएँ अपनी हैं, पर कामना अपनी नहीं है । कारण कि जिज्ञासा और लालसा सत्-तत्त्वकी होती है, पर कामना असत्‌की होती है ।

कामनाएँ शरीरको लेकर होती हैं । बहुत-से भाई-बहन शरीरको मुख्य मानते हैं । पर वास्तवमें शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत जो शरीरमें अपना रहना मानता है, वह शरीरी मुख्य है । शरीर तो कपड़ेकी तरह है । जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े पहन लेता है, ऐसे ही वह (शरीरी) पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीर धारण कर लेता है[*]  । शरीर हरदम बदलता है । इसलिये शरीरको लेकर जो कामनाएँ होती हैं, वे अपनी नहीं हैं ।

शरीर-संसारकी इच्छाके कई नाम हैं; जैसे‒कामना, आशा, वासना, तृष्णा आदि । अमुक वस्तु मिल जाय, धन मिल जाय, भोग मिल जाय, कुटुम्ब मिल जाय, घर मिल जाय‒ये सब इच्छाएँ सच्ची नहीं हैं । ये इच्छाएँ सभी योनियोंमें होती हैं । मनुष्यकी इच्छाएँ और होती हैं, कुत्तेकी इच्छाएँ और होती है, सिंहकी इच्छाएँ और होती हैं । ऐसे हो गाय-भैंस, भेड़-बकरी, गधा, ऊँट आदिकी अलग-अलग इच्छाएँ होती हैं । तात्पर्य है कि शरीर भी बदलते रहते हैं और इच्छाएँ भी बदलती रहती हैं । वृक्षोंको खाद तथा पानीकी इच्छा होती है । ये मिलें तो वृक्ष हरे हो जाते हैं । ये न मिलें तो वे सूख जाते हैं । परन्तु जिज्ञासा और लालसा‒ये दो इच्छाएँ केवल मनुष्यशरीरमें ही होती हैं, अन्य शरीरोंमें नहीं होतीं । कारण कि अन्य शरीर भोगयोनियाँ हैं । उनमें केवल भोगनेकी इच्छा है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे



[*] वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
   तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
                                                               (गीता २ । २२)