।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, बुधवार
रम्भा-तृतीया

कामना, जिज्ञासा और लालसा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिज्ञासा और लालसा असुरों-राक्षसोंमें नहीं होती, भूत-प्रेत-पिशाचमें नहीं होती । यह देवताओंमें हो सकती है, पर उनमें भी भोग भोगनेकी इच्छा मुख्य रहती है । जैसे‒मनुष्यलोकमें ज्यादा धनी लोगोंमें भोग भोगनेकी और धनका संग्रह करनेकी इच्छा मुख्य रहती है तो वे भगवान्‌में नहीं लगते । कलकत्तेके एक धनी आदमीसे मैंने पूछा कि तुम्हारे पास इतने रुपये हैं कि कई पीढ़ियोंतक जीवन-निर्वाह हो जाय, फिर और रुपये कमाकर क्या करोगे ? उसने बड़ी सज्जनतासे उत्तर दिया कि स्वामीजी ! इसका उत्तर हमारे पास नहीं है ।’ केवल एक ही धुन है‒धन कमाओ, धन कमाओ । उस धनका करेंगे क्या‒इस तरफ खयाल नहीं है । पूरा धन भोग तो सकते नहीं; अतः छोड़कर मरना पड़ेगा ।

केवल भोगोंकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं । मनुष्य कहलानेयोग्य वही हैं, जिनमें अपने स्वरूपकी जिज्ञासा और परमात्माकी लालसा है । अपने स्वरूपको जाननेकी और परमात्माको प्राप्त करनेकी इच्छा मनुष्यमें ही हो सकती है । यह सामर्थ्य मनुष्यमें ही है । परन्तु इसको छोड़कर जो भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, उनमें मनुष्यपना नहीं है, प्रत्युत पशुपना है । भागवतमें इसको पशुबुद्धि कहा गया है‒पशबुद्धिमिमां जहि’ (१२ । ५ । २) । मैं कौन हूँ ? मेरा मालिक कौन है ?‒यह जाननेकी इच्छा मनुष्यबुद्धि है ।

इस दुनियामें एक अँधेरा,        सबकी आँख में जो छाया ।
जिसके कारण सूझ पड़े नहीं,     कौन हूँ मैं कहाँ से आया ॥
कौन दिशाको जाना मुझको,    किसको देख मैं ललचाया ।
कौन है मालिक इस दुनिया का, किसने रची है यह माया ॥

‒यह जिज्ञासा मनुष्यमें ही हो सकती है । पशुओंमें गाय बड़ी पवित्र है । मल और मूत्र किसीका भी पवित्र नहीं होता, पर गायका गोबर और गोमूत्र भी पवित्र होता है ! पवित्रताके लिये गोमूत्र छिड़का जाता है, गोबरका चौका लगाया जाता है । ऐसी पवित्र होनेपर भी गायमें यह जाननेकी शक्ति नहीं है कि मेरा स्वरूप क्या है ? परमात्मा क्या है ? इसको मनुष्य ही जान सकता है । मनुष्यजन्मके सिवाय और कोई जाननेकी जगह नहीं है । यह मौका मनुष्यजन्ममें ही है । इस जन्ममें ही हम अपने-आपको जान सकते हैं, भगवान्‌को प्राप्त कर सकते हैं, भगवान्‌में प्रेम कर सकते हैं । अगर मनुष्यशरीरमें आकर यह काम नहीं किया तो मनुष्यशरीर निरर्थक गया !

कामनाएँ सदा बदलती रहती हैं, पर जिज्ञासा और लालसा सदा एक ही रहती है, कभी बदलती नहीं । कारण कि ये दोनों खुदकी हैं । खुद कभी बदलता नहीं, शरीर बदलता रहता है । ऐसे ही इच्छाएँ बदलती हैं, भाव बदलते हैं, रहन-सहन बदलता है । जो बदलता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । इसलिये शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को कहा‒

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
                                         (श्रीमद्भा १२ । ५ । २)

राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मरूँगा ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे