।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

निष्कामभाव होनेसे मनुष्यमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंका नाश हो जाता है और समता आ जाती है । समता आनेसे योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समताका ही है‒समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । निष्कामभाव आनेसे चेतनताकी मुख्यता और जड़ताकी गौणता हो जाती है । मनुष्यमें जितना-जितना निष्कामभाव आता है, उतना-उतना वह संसारसे ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकामभाव आता है, उतना-उतना वह संसारमें बँधता है ।

गीतामें आया है‒

इहैव  तैर्जितः  सर्गो  येषां  साम्ये  स्थितं  मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
                                                           (५ । १९)

जिनका मन साम्यावस्थामें स्थित हो गया, उन लोगोंने संसारको जीत लिया अर्थात् वे जन्म-मरणसे ऊँचे उठ गये । ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्तःकरण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हो गये । वास्तवमें परमात्मामें स्थिति सबकी है; क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक हैं । एक सुईकी नोक-जितनी जगह भी परमात्मासे खाली नहीं है । परमात्मा सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण हैं । परन्तु परमात्मामें स्थित होते हुए भी संसारमें राग-द्वेषके कारण मनुष्य परमात्मामें स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसारमें स्थित हैं । वे परमात्मामें स्थित तभी होंगे, जब उनके मनमें राग-द्वेष मिट जायँगे । जबतक मनमें राग-द्वेष रहेंगे, तबतक भले ही चारों वेद और छः शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी । राग-द्वेषको हटानेके लिये क्या करें ? इसके लिये भगवान् कहते हैं‒

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ  ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
                                                (गीता ३ । ३४)

‘इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग-द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालनेवाले) शत्रु हैं ।’

अनुकूलताको लेकर राग और प्रतिकूलताको लेकर द्वेष होता है । साधकको चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो । वशीभूत होनेसे राग-द्वेष बढ़ते हैं । जबतक राग-द्वेष हैं, तबतक जन्म-मरण है । राग-द्वेषसे ऊँचा उठनेपर मुक्ति होती है और परमात्मामें प्रेम होनेपर भक्ति होती है । पहले कर्मयोग और ज्ञानयोग करके भी भक्ति कर सकते हैं और आरम्भसे भी भक्ति कर सकते हैं ।

कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है । कई व्यक्ति ऐसा नहीं मानते, प्रत्युत कर्मयोग तथा भक्तियोगको साधन और ज्ञानयोगको साध्य मानते हैं । परन्तु गीता भक्तियोगको ही साध्य मानती है । गीताके अनुसार कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनों निष्ठाएँ समकक्ष हैं, पर भक्ति दोनोंसे विलक्षण है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे