।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
आनन्द-तत्त्व

परमात्माका आनन्दस्वरूप भी एक अवर्णनीय तत्त्व है । वह निरतिशय सुखस्वरूप है । वह आनन्द सातिशय नहीं है । जिस सुखकी सीमा (हद) हो जाती है, उसे सातिशय कहते हैं । वह आनन्द असीम है । वह अनुभवमें आनेवाला आनन्द नहीं है, वह तो अनुभवरूप है । आनन्द एक बहुत विशेष सुखको कहते हैं । वह परमात्मा स्वतः सुखरूप सुख है । वह सुख मन-वाणीका विषय नहीं है । वह तो एकमात्र आनन्द ही है‒जिसके प्रतिद्वन्द्वी दुःख, अशान्ति, विक्षेप आदिकी कहीं किञ्चिन्मात्र भी सम्भावना ही नहीं है ।

मनुष्यको अपने इष्ट पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर जो मनमें एक प्रकारके आनन्दका अनुभव होता है, उससे अनन्तगुना आनन्द सच्चे वैराग्य, सत्संग और भजनके अभ्याससे प्राप्त होता है । उसकी अपेक्षा भी परमात्मध्यानजनित आनन्द बहुत ही विलक्षण है । परंतु परमात्माका स्वरूपभूत आनन्द तो फिर भी अलग ही रह जाता है । वह आनन्द किसी तरह भी समझा या समझाया नहीं जा सकता । वह आनन्द-ही-आनन्द है । वह आनन्द अपरिमित, असीम, अपार, अनन्त, एकरस, परिपूर्ण, सम, निर्विकार और घन है‒जिस आनन्दमें अन्य किसीकी किसी भी समय किञ्चिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं है । वह केवल आनन्द-ही-आनन्द है । यह कहना भी देश, काल, वस्तुको लेकर ही है । वास्तविक आनन्द तो देश, काल, वस्तुसे सर्वथा असम्बद्ध परमात्मस्वरूप ही है । इस ‘आनन्द’ तत्त्वका वर्णन गीतामें ५वें अध्यायके २१, २४; ६ठे अध्यायके २१, २७, २८ और १४वें अध्यायके २७वें श्लोकोंमें मुख्यतासे किया गया है ।

सत्‌-चित्-आनन्दकी एकता


ये सत्, चित्, आनन्द विशेषण परमात्माके द्योतक हैं, वस्तुतः उसके वाचक नहीं और न ये कोई उससे अलग उसके भिन्न-भिन्न विशेषण ही हैं । उसी एक भगवत्तत्त्वको समझानेके लिये ही शास्त्रोंमें ऋषि-महात्माओंने इन विशेषणोंका वर्णन किया है । वह परमात्मतत्त्व हर समय, हर जगह, हर वस्तुमें एकरस अपरिवर्तितरूपसे विद्यमान रहनेके कारण ‘सत्‌’ कहा जाता है । वह नित्य विद्यमान सत्-तत्त्व ही अपने-आपको जानता है, इसलिये उसे ‘चेतन’ कहते हैं । वह सत्-तत्त्व ही स्वयंप्रकाश एवं स्वयं ज्ञानस्वरूप है, इसलिये चेतन उसका कोई अलग विशेषण नहीं है । वह स्वयं ही चित्स्वरूप है । उसमें दुःख, अशान्ति आदिकी कदापि सम्भावना नहीं है और उसमें निरतिशय सुखकी कदापि कमी अथवा अभाव नहीं होता‒इसलिये वही ‘आनन्द’ है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे