।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, बुधवार
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भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌के कर्मोंमें अपना निजी कोई स्वार्थ या कामना नहीं होती । उनके कर्म निर्मल पापरहित होते हैं । उनके उपदेश, भाव और आचरणोंका अनुकरण करनेसे पापी-से-पापी भी परम विशुद्ध तरन-तारन बन जाता है । इसलिये भगवान्‌के कर्म परम विशुद्ध और निर्विकार होते हैं ।

भगवान्‌के कर्म अलौकिक होते हैं । जहाँ देवताओंकी भी कल्पना नहीं पहुँच पाती और जो बिलकुल असम्भव होते हैं, उन कर्मोंको भी वे सम्भव कर दिखाते हैं । उनकी तो माया ही अघटनघटनापटीयसी है, फिर उन मायाके एकमात्र अधीश्वर परमात्माके कर्म सर्वथा अलौकिक हों, इसमें तो कहना ही क्या है ?

जैसे सर्वत्र परिपूर्ण सामान्य अग्नि साधनोंसे साकाररूपमें प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार वह सर्वत्र अस्तिरूपसे प्रतीत होनेवाला निर्गुण सत्-तत्त्व ही अपनी अहैतुकी कृपा और भक्तोंके प्रेमके वश होकर दिव्य विग्रहरूपमें प्रकट होता है ।

प्रकाश-तत्त्व

भगवान्‌के विग्रहका प्रकाश दिव्य होता है । वह निर्गुण सर्वव्यापी चिन्मयस्वरूप ही स्थूलरूपसे प्रकाशरूपमें आता है । वह प्रकाश प्राकृत नेत्रोंका विषय नहीं होता, दिव्य चक्षुसे ही देखा जा सकता है । भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा है‒

न तु मां   शक्यसे   द्रष्टुमनेनैव   स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
                                          (गीता ११ । ८)

परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रोंद्वारा देखनेमें निःसंदेह समर्थ नहीं है; इसीसे मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योग-शक्तिको देख ।’

यद्यपि अवतारके समय भगवान्‌का विग्रह सबके सामने होनेसे सभीको उनके दर्शन होते हैं; परंतु उनको दर्शन होते हैं योगमायासमावृत साधारण मनुष्यरूपके ही, दिव्यरूपके नहीं ।

भगवान्‌का वह दिव्य प्रकाश सूर्य, चन्द्रमा आदिके प्रकाशसे अत्यन्त महान् और विलक्षण होता है । संजयने गीतामें कहा है‒

दिवि    सूर्यसहस्रस्य       भवेद्   युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्वाद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
                                                         (११ । १२)

आकाशमें हजार सूर्योंके एक साथ उदय होनेसे उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्माके प्रकाशके सदृश कदाचित् ही हो ।’

   (अपूर्ण)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे