।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
हमारा असली घर



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारा देश वह है, जिसको भगवान्ने अपना धाम बताया है

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा  न  निवर्तन्ते   तद्धाम  परमं  मम ॥
                                                (गीता १५ । ६)

‘उस परमपदको न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसारमें नहीं आते, वही मेरा धाम है ।’

जो भगवान्का धाम है, वही हमारा धाम है । हम उस धामके हैं, यहाँके नहीं हैं । यहाँ तो हम आये हैं । आया हुआ आदमी कबतक रहेगा ? मुसाफिर कितने दिन ठहरेगा ? जबतक हम अपने असली धाममें नहीं जायँगे, तबतक हमारी मुसाफिरी चलती ही रहेगी, मिटेगी नहीं ।

भगवान् अपने हैं और सब कुछ पराया है । परायी वस्तुको हम अपने पास कबतक रखेंगे ? जो वस्तु हमारी है, वही हमारे पास रहेगी । जो वस्तु हमारी नहीं है, वह हमारे पास कैसे रहेगी ? संसारकी वस्तुको अपने पासमें रखनेकी ताकत किसीमें नहीं है ।

एक वैश्य था और एक राजपूत था । वैश्य बलवान् था और राजपूत कमजोर था । राजपूत उस वैश्यको लूटने लगा । वैश्यने राजपूतको नीचे पटक दिया और उसके ऊपर चढ़ गया । राजपूतने पूछा कि तू कौन है ? वह बोला कि मैं वैश्य हूँ । यह सुनते ही राजपूतको जोश आ गया कि अरे ! एक बनिया मेरेको दबा रहा है ! उसने पट वैश्यको नीचे दबा दिया । इसी तरह यह संसार हमारेको दबा रहा है । हमारे मनमें उत्साह होना चाहिये कि हम तो भगवान्के अंश हैं, नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं और संसार प्रकृतिका है, क्षणभंगुर और परिवर्तनशील है, फिर संसार हमारेको कैसे दबा सकता है ! वास्तवमें हम संसारसे दबे हुए नहीं हैं, प्रत्युत अपनेको दबा हुआ (कमजोर) मान लिया है । संसारकी कोई भी वस्तु ठहरती नहीं । न शरीर ठहरता है, न सुख ठहरता है, न कुटुम्ब ठहरता है, न धन ठहरता है, न विद्या ठहरती है, न योग्यता ठहरती है, न बल ठहरता है । कोई वस्तु ठहर सकती ही नहीं । जो वस्तु कभी ठहरती ही नहीं, उससे हम क्यों दबे ? उसके गुलाम क्यों बनें ?

संसारमें अपना कोई नहीं है । केवल भगवान् और उनके भक्तये दो ही अपने हैं

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
                                  (मानस, उत्तर ४७ । ३)

इन दोनोंकी बात हमें माननी चाहिये । भगवान् कहते हैं‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) और भक्त कहते हैं‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ ( मानस, उत्तर ११७ । १) । परन्तु अपनेको संसारका मानकर हम ठगाईमे आ गये ! अनादिकालसे भगवान्के होते हुए भी हम ठगाईमें आकर संसारके बन गये और अपने असली घरको भूल गये ! इसलिये गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि हम किस घरके हैं ?

हमारी जाति और शरीर-संसारकी जाति परस्पर मिलती नहीं । हम अविनाशी हैं और शरीर-संसार नाशवान् हैं । हम अपरिवर्तनशील हैं और शरीर-संसार निरन्तर बदलनेवाले हैं । हमारी जाति तो भगवान्के साथ मिलती है । हम भगवान्की जातिके हैं और भगवान् हमारी जातिके हैं । हम भगवान्की बिरादरीके हैं । हम संसारके नहीं हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे