।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मा सर्वत्र सर्वदा विद्यमान है; किंतु लक्ष्य परमात्मा न रहनेके कारण ही मनुष्य शान्तिलाभसे वंचित रहता है । यदि उसका लक्ष्य परमात्मा हो जाय तो किसी भी शास्त्रोक्त उपायसे परमशान्तिकी प्राप्ति हो सकती है । किसी भी मार्गसे चला जाय, वास्तविक परमात्माकी प्राप्तिके बाद तो उस पुरुषकी स्थितिमें किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं होता; परन्तु साधनकालमें उपायभेदके कारण अन्तर रहता है तथा साधनकी अन्तिम सीमाकी प्राप्तिमें भी भेद रहता है । नीचे इस विषयमें कुछ लिखा जाता है‒

दर्शन, ज्ञान, प्रवेशका प्रकरण

सगुण, साकार भगवान्‌की अनन्य भक्ति करनेवाले भक्तोंको परमात्माके दर्शन, उनका तत्त्वज्ञान और उनके स्वरूपकी प्राप्ति‒तीनों होते हैं । भगवान्‌ने कहा है‒

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च   तत्त्वेन   प्रवेष्टुं  च  परंतप ॥
                                            (गीता ११ । ५४)

परन्तप अर्जुन ! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ !’

सगुण-निराकारकी उपासनाकी दो प्रणालियाँ होती हैं‒एक तो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं और मैं उनका दास हूँ‒इस प्रकारके भेद भावपूर्वक की जाती है । यथा‒

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर  रूप  स्वामि  भगवंत ॥

दूसरी प्रणालीमें अभेदभाव रहता है कि सब परमात्मा ही है, मैं कोई उससे अलग वस्तु नहीं‒

यदा     भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
                                         (गीता १३ । ३०)

इन दोनोंमें भेद-प्रणालीसे चलनेवाला साधन-कालमें भेद मानकर सिद्धिकालमें अपनेसे अभिन्न भी मान सकता है और भिन्न भी । भिन्न माननेवाला तो उपर्युक्त सगुण-साकारकी उपासनाके मार्गसे परमात्माके दर्शन करके तथा तत्त्वसे जानकर उन्हें प्राप्त कर लेता है और सिद्धिकालमें साध्यको अपनेसे अभिन्न माननेवाला परमात्माके स्वरूपको तत्त्वतः जानकर निर्गुण-निराकारको प्राप्त हो जाता है । उसे साकार-विग्रहकी भावना तथा दर्शनकी इच्छा न रहनेके कारण उनके दर्शन नहीं होते ।


सगुण-साकारकी उपासनासे नेत्रोंसे दर्शन, बुद्धिसे ज्ञान और आत्मासे प्राप्ति‒तीनों होते हैं और सगुण-निराकारकी उपासनासे केवल बुद्धिसे ज्ञान और आत्मासे प्राप्ति‒दो ही होते हैं एवं मन, बुद्धिका विषय न होनेसे निर्गुण-निराकारकी तो उपासना ही नहीं बन सकती; वहाँ तो केवल आत्मासे प्राप्ति ही होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे