।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, रविवार
पुरुषोत्तमी एकादशी-व्रत (सबका)
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
सगुण-साकारकी उपासनाकी पूर्णता होनेपर भक्तको नेत्रोंसे भगवान्‌के दिव्य स्वरूपका साक्षात् दर्शन होता है, वह उनके विग्रहकी दिव्य गन्धका अनुभव करता है, उसमें भक्तोंके समस्त लक्षण घटने लग जाते हैं, जो कि भगवान्‌ने स्वयं गीता अध्याय १२में श्लोक १३ से १९ तक कहे हैं । तथा भगवान्‌के प्रत्यक्ष मिलनके समय जो भी घटनाएँ होती हैं, वे बादमें भी सत्य ही प्रमाणित होती हैं‒जैसे ध्रुवजीको शंख छुआनेपर समस्त शास्त्रोंका ज्ञान हो जाना आदि ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें भी अध्याय ३ श्लोक ३में परमात्माकी प्राप्तिके ये दो स्वतन्त्र मार्ग बतलाये हैं‒(१) सांख्यनिष्ठा, (२) योगनिष्ठा । ये दोनों ही मार्ग एक-दूसरेसे पूर्व-पश्चिमकी भाँति अत्यन्त भिन्न हैं; किन्तु ऐसा होनेपर भी दोनोंके द्वारा प्रापणीय वस्तु एक ही है (गीता ५ । ४-५) । सांख्ययोगी परमात्मासे अपनी कोई अलग सत्ता नहीं मानता तथा प्रकृतिसे उत्पन्न गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं‒यों समझकर मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाली समस्त क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे सर्वथा रहित होकर एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही अभिन्नभावसे नित्य स्थित रहता है । किन्तु कर्मयोगी साधनकालमें कर्म, कर्मफल, परमात्मा और अपनेको भिन्न-भिन्न मानकर फल और आसक्तिका त्याग करके भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार भगवान्‌के लिये ही समस्त कर्मोंका आचरण करता है । इसलिये ये दोनों मार्ग एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं ।

इस प्रकार एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न होनेके कारण एक पुरुष एक समयमें ही दोनोंका अनुष्ठान एक साथ नहीं कर सकता । हाँ, किसीकी रुचि हो तो पहले कर्मयोगका साधन करके फिर सांख्ययोगका साधन कर सकता है; परन्तु सांख्ययोग योगनिष्ठाका अंग नहीं बन सकता, क्योंकि सांख्ययोगमें अभेददृष्टि रहती है । तब वह भेदोपासनारूप योगनिष्ठाका अंग कैसे बन सकता है । यदि किसी सांख्ययोगके साधन करनेवालेकी रुचि और मत बदल जाय और वह उस साधनको छोड़कर योगनिष्ठाका साधन करने लगे तो बात दूसरी है ।

उपसंहार

परमात्मा वास्तवमें भेद-अभेद दोनोंसे रहित हैं । परमात्मा निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं; निराकार भी हैं, साकार भी हैं; व्यक्त भी हैं, अव्यक्त भी हैं और इन सबसे रहित तथा विलक्षण भी । जहाँ मन-बुद्धि नहीं पहुँच सकते, परमात्मा वहाँ भी हैं और परमात्माको लक्ष्य बनाकर मन-बुद्धिसे हम जिस किसी भी स्वरूपकी धारणा करते हैं, परमात्मा वहाँ भी हैं ही । इसलिये कोई भी मनुष्य परमात्माके इस तत्त्वको समझकर परमात्माकी प्राप्तिके लिये उनके किसी भी रूपको लक्ष्य बनाकर साधन करता है तो उसे परमात्माकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है तथा वह प्राप्ति होनेके बाद ही असली स्वरूपको समझता है । पर वहाँ यह कहना भी नहीं बन सकता; क्योंकि वह स्थिति देश, काल, वस्तुसे अतीत है और वहाँ ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयकी त्रिपुटी नहीं है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे