।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
पर कोई यह समझे कि पहले परमात्माके इस तत्त्वको पूर्ण रीतिसे जान लिया जाय और पीछे उपासना की जाय तो यह नहीं हो सकता । क्योंकि पूर्णरूपसे परमात्माका तत्त्व जान लेना तो उनकी प्राप्तिके बाद ही होता है, पहले तो शास्त्रों, महात्माओंके वचनोंपर विश्वास कर मन-बुद्धिके द्वारा वैसा ही मान लेना पड़ता है । इसीको शास्त्रोंमें श्रद्धा कहा है तथा श्रद्धा-विश्वासपूर्वक की गयी उपासना ही साधकको वास्तविक तत्त्व पूर्णतः समझानेमें समर्थ होती है ।

इसलिये साधकको भेद, अभेद या यों कहें कि भक्ति, ज्ञान इनमेंसे किसी भी एक मार्गको पकड़कर श्रद्धा और तत्परताके साथ उसे तय करनेमें जल्दी-से-जल्दी लग जाना चाहिये । यह मानव-शरीर बहुत ही दुर्लभ है और इससे ऐसा बड़ा भारी काम सिद्ध हो सकता है जो कि देवयोनिमें भी सुलभ नहीं है । परंतु यह शरीर है अनित्य; इसलिये जल्दी ही सावधान होकर साधनमें लग जाना चाहिये; क्योंकि पारमार्थिक साधनके बिना केवल स्त्री, पुत्र, धन-जन, जमीन-मकान, भोग-सामग्रीके संग्रह और उपभोगमें ही समय बरबाद हो जाता है‒जिससे पूर्वके पुण्य तथा पुण्यसे प्राप्त आयु तो नष्ट होती है, साथ ही आसक्ति और स्वार्थ रहनेके कारण न्याय-अन्यायका कोई खयाल न रहनेसे मनुष्य चौरासी लाख योनियों तथा नरक प्राप्त करानेवाले बड़े भारी पापोंको भी बटोरता रहता है और फलतः सदाके लिये दुःखी बन जाता है । भोगोंके उपभोगसे आयु नष्ट होती है, समय बरबाद होता है, अन्तःकरणमें भोगोंके संस्कार जमते हैं, आदत बिगड़ जाती है, धन नष्ट होता है, पुण्य क्षीण होते हैं, शरीर निर्बल और रोगी हो जाता है; भोगोंमें ही रचे-पचे रहनेके कारण धर्मसंचय नहीं हो पाता और अन्यायसे भोग भोगनेपर तो पापोंका बोझ भी बढ़ता है । अतः इन असत् भोग-पदार्थोंकी तरफ लक्ष्य न रखकर दुःख, अशान्ति, बन्धन, अल्पता, भय, उद्वेग, चिन्ता, शोक, जलन, ह्रास आदिका जहाँ अत्यन्त अभाव है, ऐसेसत्’ स्वरूप परमानन्दमय परमात्माकी प्राप्तिके लिये शीघ्रातिशीघ्र अपना सारा बल लगाकर प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि यह शरीर अनित्य है, न जाने कब प्राण चले जायँ और यदि साधन न किया गया तो ऐसा मौका पुनः मिलना बहुत ही कठिन है । यह सुदुर्लभ मानव-शरीर और यह कलियुगका समय प्राप्त करके भी जो मनुष्य सावधान नहीं होता, वह महान् हानि उठाता है । श्रुति कहती है‒

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति  न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥
                                                        (केन २ । ५)

यदि इस मनुष्य-शरीरमें ही उस परमात्म-तत्त्वको जान लिया तो सत्य है यानी उत्तम है; यदि इस जन्ममें उसको नहीं जाना तो महान् हानि है । धीर पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें परमात्माका चिन्तन कर, परमात्माको समझकर इस देहको छोड़ अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं ।’

इसलिये मनुष्यको उचित है कि उस परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये महापुरुषोंकी शरणमें जाकर, सरल हदयसे श्रद्धापूर्वक पूछकर उस तत्त्वको समझे और सब संदेहोंका समाधान करके किंकर्तव्य-विमूढ़ताको सर्वथा हटाकर उनके कहनेके अनुसार परमात्माकी प्राप्तिके लिये तत्पर हो जाय । श्रुतिभगवती घोषणा करती है‒

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
                                  (कठ १ । ३ । १४)

उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषोंको प्राप्तकर इस तत्त्वको जानो ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे