।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७२, रविवार
भगवल्लीलाका तत्त्व


     कर्म, क्रिया और लीला‒तीनों एक दीखते हुए भी वास्तवमें सर्वथा भिन्न हैं । जो कर्तृत्वाभिमानपूर्वक किया जाय तथा अनुकूल-प्रतिकूल फल देनेवाला हो, वह कर्म’ होता है । जो कर्तृत्वाभिमान-पूर्वक न की जाय तथा जो फल देनेवाली भी न हो, वह क्रिया’ होती है; जैसे‒श्वासोंका चलना, आँखोंका खुलना और बन्द होना आदि । जो क्रिया कर्तृत्वाभिमान तथा फलेच्छासे रहित तो होती ही है, साथ-साथ दिव्य तथा दुनियामात्रका हित करनेवाली भी होती है, वह लीला’ होती है । सांसारिक लोगोंके द्वारा कर्म’ होता है, मुक्त पुरुषोंके द्वारा क्रिया’ होती है और भगवान्‌के द्वारा लीला’ होती है‒
लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’
                                        (ब्रह्मसूत्र २ । १ । ३३)
ईश्वरका सृष्टि रचना आदि कार्य लोकमें तत्त्वज्ञ महापुरुषोंकी तरह केवल लीलामात्र है ।’
भगवानकी छोटी-से-छोटी तथा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया लीला’ होती है । लीलामें भगवान् सामान्य मनुष्यों-जैसी क्रिया करते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं[*] । भगवानकी लीला दिव्य होती है‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९) । यह दिव्यता देवताओंकी दिव्यतासे भी विलक्षण होती है । देवताओंकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे होनेके कारण सापेक्ष और सीमित होती है, पर भगवान्‌की दिव्यता निरपेक्ष और असीम होती है । यद्यपि जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुषोंकी क्रियाएँ भी दिव्य होती हैं, तथापि वे भी भगवल्लीलाके समान नहीं होतीं । भगवान्‌की साधारण लौकिक लीला भी अत्यन्त अलौकिक होती है । जैसे भगवान्‌की रासलीला लौकिक दीखती है, पर उसको पढ़ने-सुननेसे साधककी कामवृत्तिका नाश हो जाता है[†]
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे


[*] तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
                                            (गीता ४ । १३)

‘उस (सृष्टि-रचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान ।’
    न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
                                                 (गीता ४ । १४)

‘कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते ।’

[†] विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः  श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णभेद् यः ।
भक्ति परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥
                                      (श्रीमद्भा॰ १० । ३३ । ४०)

परीक्षित् ! जो धीर पुरुष ब्रजयुवतियोंके साथ भगवान् श्रीकृष्णके इस चिन्मय रास-विलासका श्रद्धाके साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान्‌के चरणोंमें पराभक्तिकी प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदयके रोग-कामविकारसे छुटकारा पा जाता है । उसका कामभाव सदाके लिये नष्ट हो जाता है ।’