।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७२, सोमवार
भगवल्लीलाका तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह जगत् भगवान्‌का आदि अवतार है‒ ‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ ( श्रीमद्भा २ । ६ । ४१) । तात्पर्य है कि भगवान् ही जगत्-रूपसे प्रकट हुए हैं । परन्तु जीवने भोगासक्तिके कारण जगत्‌को भगवद्‌रूपसे स्वीकार न करके नाशवान् जगत्-रूपसे ही धारण कर रखा है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । इस धारणाको मिटानेके लिये साधकको दृढ़तासे ऐसा मानना चाहिये कि जो दीख रहा है, वह भगवान्‌का स्वरूप है और जो हो रहा है, वह भगवान्‌की लीला है । ऐसा मानने (स्वीकार करने) पर जगत् जगत्-रूपसे नहीं रहेगा और भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है’इसका अनुभव हो जायगा । दूसरे शब्दोंमें, संसार लुप्त हो जायगा और केवल भगवान् रह जायँगे । कारण कि प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्तिको भगवान्‌का स्वरूप और प्रत्येक क्रियाको भगवल्लीला माननेसे भोगासक्ति, राग-द्वेष नहीं रहेंगे । भोगासक्तिका नाश होनेपर जो क्रियाएँ पहले लौकिक दीखती थीं, वही क्रियाएँ अलौकिक भगवल्लीला-रूपसे दीखने लगेगी और जहाँ पहले भोगासक्ति थी, वहाँ भगवत्प्रेम हो जायगा ।

साधकको ऐसा मानना चाहियें कि भगवान् जैसा रूप धारण करते हैं, उसीके अनुरूप लीला करते हैं[*] । जब वे अर्चावतार अर्थात् मूर्तिका रूप धारण करते हैं, तब वे मूर्तिकी तरह ही अचल रहनेकी लीला करते हैं । अगर वे अचल नहीं रहेंगे तो वह अर्चावतार कैसे रहेगा ? भगवान्‌ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये । उन्होंने जैसा रूप धारण किया, वैसी ही लीला की । जैसे, वराहावतारमें भगवान्‌ने सूअर बनकर लीला की और वामनावतारमें ब्रह्मचारी ब्राह्मण बनकर लीला की ।

भगवल्लीलाको पढ़ने-सुननेसे अन्तःकरण शुद्ध होता है, संसारकी आसक्ति मिटती है और भगवान्‌में प्रेम होता है । ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर, ब्रह्माजी, सनकादिक ऋषि, देवर्षि नारद आदि भी भगवान्‌की लीलाओंको गाकर और सुनकर प्रेममग्न हो जाते हैं । भगवान् अवतार लेकर जिन स्थानोंमें लीलाएँ करते हैं, वे स्थान भी इतने पवित्र हो जाते हैं कि उनमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निवास करनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है । इसका कारण यह है कि भगवान् मात्र जीवोंका कल्याण करनेके उद्देश्यसे ही अवतार लेकर लीलाएँ करते हैं‒‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।’ (श्रीमद्भा १० । २१ । १४)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे



[*] भगवान् श्रीकृष्ण उत्तंक ऋषिसे कहते हैं‒
धर्मसंरक्षणार्थाय   धर्मसंस्थापनाय च ॥
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव ।
                                ( महाभारत, आश्व ५४ । १३-१४)

मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ ।’

यदा  त्वहं  देवयोनौ     वर्तामि  भृगुनन्दन ।
तदाहं   देववत्   सर्वमाचरामि  न  संशयः ॥
यदा  गन्धर्वयोनौ   वा  वर्तामि  भृगुनन्दन ।
तदा गन्धर्ववत्   सर्वमाचरामि  न  संशयः ॥
नागयोनौ यदा चैव   तदा वर्तामि नागवत् ।
यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद् विचराम्यहम् ॥
                                            (महा आद्य५४ । १७-१९)

भृगुनन्दन जब मैं देवयोनिमें अवतार लेता हूँ, तब देवताओंकी ही भाँती सारे आचार-विचारका पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है ।’
‘जब मैं गन्धर्वयोनिमें प्रकट होता हूँ, तब मेरे सारे आचार-विचार गन्धर्वोंके ही समान होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।’

‘जब मैं नागयोनिमें जन्म ग्रहण करता हूँ, तब नागोंकी तरह बर्ताव करता हूँ । यक्षों और राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होनेपर मैं उन्हीके आचार-विचारका यथावत्-रूपसे पालन करता हूँ ।’