।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
मिली हुई सामग्री अपनी नहीं


यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है कि जिन व्यक्तियों और वस्तुओंके साथ हम रहते हैं, वे हमारे साथ हरदम रहेंगी, ऐसी बात नहीं है और हम उनके साथ हरदम रहेंगे, यह बात भी नहीं है । इतना ही नहीं, शरीरके साथ हम सदा रहेंगे और शरीर हमारे साथ सदा रहेगा‒ऐसा भी नहीं है । इस बातपर खूब विचार करना है । जब ये हमारे साथ सदा नहीं रह सकते और हम इनके साथ सदा नहीं रह सकते, तो फिर इनके भरोसे कितने दिन काम चलेगा ? यह तो उसकी बात हुई जो हमारे सामने दीखता है । परन्तु जो परमात्मा हैं, जिनके बारेमें हमने शास्त्रोंसे, सन्तोंसे सुना है, वे परमात्मा सदासे हमारे साथ थे, साथ हैं और सदा साथ रहेंगे । केवल सांसारिक वस्तुओंकी ओर दृष्टि रहनेसे उस परमात्माको पहचान नहीं सकते, उनको देख नहीं सकते । अगर हम इन नाशवान् वस्तुओंसे विमुख हो जायँ तो परमात्माके दर्शन हो जायँगे । विमुख होना क्या है ? इनसे सुख लेना छोड़ दें, इनको दूसरोंकी सेवामें लगायें । वस्तुओंको तो दूसरोंके हितके लिये खर्च करें और व्यक्तियोंको सुख दें, आराम दें, उनका हित करें । ऐसा भाव बना लें कि हमारे पास जितनी वस्तुएँ हैं, उनके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनी है । अभी जो यह भाव है कि संग्रह करना है, अपने पास रखना है, इस भावको बिलकुल उलटना पड़ेगा कि इनको दूसरोंकी सेवामें लगाना है । विचार करें, रुपयोंको तो सदा साथमें रख सकोगे नहीं और इन रुपयोंके साथ आप सदा रह सकोगे नहीं । रुपये तो साथ जायेंगे नहीं, पर रुपये रखनेका जो भाव है, वह मरनेपर भी साथ रहेगा । रुपये रखनेका भाव महान् पतन करनेवाला और स्वभाव बिगाड़नेवाला है ।

रुपये दूसरोंका हित करनेके लिये हैं, सेवा लिये हैं‒ऐसा भाव रखनेपर सब रुपये चले नहीं जायँगे । जितना-जितना सेवामें खर्च करोगे, उतने ही जायँगे और पासमें रहनेपर भी बाधा नहीं देंगे । जैसे, अधिक मासमें दान देनेके लिये माताएँ चीजें इकट्ठी कर लेती हैं कि ये थाली, लोटा, गिलास, आसन, छाता, कपड़ा आदि दान करनेके लिये हैं, अपने काममें लेनेके लिये नहीं हैं । भूलसे कोई बालक वहाँसे कोई चीज उठाकर ले आये तो कहती हैं ना ! ना ! इसको वहीं रख दे, यह अपने काममें लेनेकी नहीं है, यह तो देनेकी है । इस प्रकार देनेका भाव हो जानेसे उन चीजोंके साथ ममता नहीं रहती । इसी तरहसे यहाँ हमे जितनी वस्तुएँ मिली हैं, वे सब सेवा करनेके लिये मिलीं हैं । वे हमारी नहीं हैं, सेवाके लिये हैं‒ऐसे केवल भाव बदल दें । इसमें आपका एक कौड़ीका, एक पैसेका भी नुकसान नहीं है । जितनी सेवामें लगनी है, उतनी सेवामे लग जायगी, बाकी बची हुई फिर लगेगी । लगे या न लगे, अपने काममें नहीं लेना है । बस, निर्वाहमात्रके लिये प्रसादरूपसे लेना है‒‘तुम्हहि निवेदित भोजन करही । प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ॥’ (मानस २ । १२९ । १) सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर दिया, अब इसमेंसे जो भोजन पायेंगे, कपड़ा लेंगे, वह प्रसादरूपसे लेंगे ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे