।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७२, बुधवार
श्रीस्कन्दषष्ठी-व्रत
मिली हुई सामग्री अपनी नहीं


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जिस मकानमें रहेंगे, वह हमारा नहीं है, ठाकुरजीका प्रसाद है । प्रसादमें स्वाद नहीं देखा जाता, शौकीनी नहीं देखी जाती, ऐश-आराम नहीं देखा जाता । केवल प्रसादका सेवन करना है । प्रसाद लेनेका भी माहात्म्य होगा और दूसरोंको देनेका भी फर्क कुछ पड़ेगा नहीं । जैसे, भगवान्‌को कोई भोग लगाये तो चीजें उतनी-की-उतनी रहेंगी, माशाभर भी कम नह होंगी । परंतु वे परम पवित्र हो जायँगी । बड़े-बड़े धनी आदमी भी हाथ पसारेंगे और प्रसादका कणमात्र देनेसे राजी हो जायँगे । कारण क्या है ? वह ठाकुरजीका प्रसाद है ।

सभी प्राप्त वस्तुओंको आप भगवान्‌की मान लें, जो सच्ची बात है । साथमें लाये नहीं, ले जा सकते नहीं, रख सकते नहीं, उनके साथमें रह सकते नहीं । ये तो ठाकुरजीकी हैं; अतः ईमानदारीके साथ ठाकुरजीके अर्पण कर दो कि महाराज ! आपकी वस्तु आपके अर्पण । कितनी बढ़िया बात है । एकदम निर्लिप्तता है । निर्वाहमात्रका प्रसाद लेंगे; नहीं लेंगे तो भगवान्‌की सेवा कैसे होगी ? सब कुछ ठाकुरजीका माननेपर कुछ फर्क नहीं पड़ेगा । आपके पास चीजें ज्यों-की-त्यों रहेंगी, कुटुम्ब वैसा-का-वैसा ही रहेगा, मकान वैसा-का-वैसा ही रहेगा । शरीर वैसा-का-वैसा ही रहेगा । पर आपका चट कल्याण हो जायगा । नहीं तो उन चीजोंको अपना माननेसे बंधन हो जायगा और रहेगा कुछ नहीं आपके पासमें ।

आप बुद्धिमानीसे जरा सोचो । अपना कुछ भी खर्च न हो और कल्याण हो जाय, कितनी बढ़िया बात है ! खर्च होनेवाला तो खर्च हो ही जायगा । घाटा लगना है तो लग ही जायगा । दिवालिया होना है तो हो ही जायगा । चाहे कितनी ही कंजूसी करो, क्या बच सकते हो ? शरीरके साथ कितना ही मोह रखो, क्या शरीरको रख सकते हो ? रख सकते ही नहीं । इसलिये इन चीजोंको भगवान्‌की ही मान लो । अब घाटा लगे तो भगवान्‌का, नफा हो तो भगवान्‌का । हम क्यों रोयें ? हम क्यों दुःख पायें ? ये चीजें भगवान्‌की हैं । भीतरसे भगवान्‌की ही मान लो तो आपको क्या घाटा लगता है ? आपका क्या नुकसान होता है ? जैसे कहावत है‒‘हींग लगे न फिटकरी रंग झकाझक आय ।’ खर्चा कुछ लगे ही नहीं, और हम निहाल हो जायँ । जो होना है, वह होगा ही; जिसको रहना है, वह रहेगा ही; जिसको जाना है वह जायगा ही, इसमें तो कोई फर्क पड़ेगा नहीं । केवल भावसे भगवान्‌के अर्पण कर दो कि यह तो भगवान्‌की चीज है ।

आपके घर लड़की जनमती है तो शुरूसे आप ऐसा समझते हो कि यह लड़की तो दूसरे घर जायगी । घरमें भाई-बहन आपसमें झगड़ते हैं तो लड़केसे कहते हैं कि ‘अरे, बहनसे क्यों झगड़ता है, यह तो अपने घर जानेवाली ।’ ऐसे ही आप कृपा करके जितनी सम्पत्ति मिली है, उसको बेटीकी तरह मान लो, तो क्या हर्ज है ? अब बहन अपने घर जायगी ही, अपने पास तो रहेगी नहीं । बेटी घरपर कबतक रहेगी, बताओ ? शरीर, सम्पत्ति, मकान, परिवार आदि सब-का-सब भगवान्‌की बेटी है, यह तो अपने घर जायगी‒ऐसा मान लें ।

लड़की तो अपने घर जायगी‒ऐसा भाव होनेसे लड़केमें जितनी ममता होती है, उतनी लड़कीमें नहीं होती । लड़का बीमार हो जाय तो बड़ा असर पड़ता है, लड़की बीमार हो जाय तो उतना असर नहीं पड़ता । कारण कि यह अपनी नहीं है । जिसको अपना मानते हो, वह बेटा बापकी सारी सम्पत्तिका मालिक होता है । जो आपका बेटा नहीं है और जिसको आप अपना नहीं मानते, वह मालिक नहीं होता । जो अपना होता है, वह मालिक बनता है और अन्तमें वही खोपड़ी बिखेरता है । बेटी न तो मालिक बनती है और न खोपड़ी बिखेरती है । इसलिये सब सम्पत्ति, परिवार आदिको भगवान्‌का मान लें, नहीं तो वे मालिक भी बनेंगे और आपकी दुर्दशा भी करेंगे, फायदा इसमें कुछ नहीं होगा । भगवान्‌का मान लो तो नुकसान कुछ नहीं होगा और फायदा बड़ा भारी होगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे