।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
मिला हुआ और देखा हुआ‒संसार


संसारके दो विभाग हम देखते हैं‒एक विभाग तो हमें मिला हुआ है, जिसको हम अपना मानते हैं; और एक विभाग हमें मिला नहीं है, पर दीखनेमें आता है । देखा हुआ तो मिला नहीं और मिला हुआ रहेगा नहीं । मिले हुएके साथ न तो हम रहेंगे और न वह हमारे साथ रहेगा‒यह हमारा अनुभव है । फिर हम किसके भरोसे बैठे हैं । किसके आधारसे हम यहाँ रह रहे हैं ? हमारा आधार एक परमात्मा हैं । उनके आधारसे ही हम टिके हुए हैं । जो दीखता है और जो मिला हुआ है, इसके आधारपर हम नहीं रह सकते । कारण कि दीखनेवाला मिलता नहीं और जो मिला है, वह टिकता नहीं ।

‘है’रूपसे एक परमात्मा मौजूद हैं, उन्हींके अन्तर्गत यह संसार दिखायी दे रहा है‒

जासु सत्यता  तें  जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
                                    (मानस १ । ११७ । ४)

परमात्माकी सत्यतासे ही यह जड़ (असत्) माया सत्य दीखती है । इसका कारण क्या है ? ‘मोह सहाया’‒ मूढ़ताके कारण असत् माया सत्य दीखती है । कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते‒इस अधूरे ज्ञानका नाम मूढ़ता है, अज्ञान है । कुछ भी न जानें, इसको मूढ़ता नहीं कहते । जैसे, पत्थरको हम मूढ़ नहीं कहते । ऐसा नहीं कहते कि यह पत्थर बड़ा मूढ़ है, अज्ञानी है । मूढ़ता अधूरी जानकारीको कहते हैं । संसार सच्चा नहीं है‒यह हम जानते हैं, फिर भी हम उसको सच्चा मानते हैं, यह मूढ़ता है ।

सुननेपर, पुस्तकोंके पढ़नेपर और विचार करनेपर तो यह दीखता है कि पहले यह संसार था नहीं और पीछे रहेगा नहीं, फिर भी इसको ‘है’ मानकर इसमें राग-द्वेष करते हैं‒यह मूढ़ताका नतीजा है । जो पहले नहीं था और अन्तमें भी नहीं रहेगा, उसको बीचमें भी, ‘नहीं’ मान लेना ज्ञान है, बोध है । जैसे, स्वप्न आनेसे पहले स्वप्न नहीं था और नींद खुलनेके बाद भी स्वप्न नहीं रहेगा; अतः बीचमें भी स्वप्न नहीं है, केवल दीखता है । जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒यह सिद्धान्त है ।

यह बात बहुत विशेष ध्यान देनेकी है कि यह संसार निरन्तर ‘नहीं’ में जा रहा है, अभावमें जा रहा है । जैसे, हमारा बचपन चला गया, नहीं रहा । जितने प्राणी हैं, वे भी ‘नहीं’ में जा रहे हैं । इनमें नहीं रहना ही सत्य है । जैसे कलका दिन आज नहीं रहा, ‘नहीं’ में भरती हो गया, ऐसे ही अभी आप और हम यहाँ बैठे हैं, यह समय भी ‘नहीं’ में भरती हो रहा है । इसको वापस नहीं ला सकते । अतः इसमें नहीं’ ही तत्त्व हुआ, पर मूढ़ताके कारण यह है’ दीखता है । यह ‘है’ क्यों दीखता है ? इसमें एक सत्य परमात्मा है‒‘जासु सत्यता तें ।’ परमात्माके कारण ही इसका होनापन दीखता है । जैसे, रस्सी होनेसे ही उसमें भ्रमसे साँप दीखता है । अगर रस्सी न हो तो साँप भी नहीं दीखेगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे