।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
उपासना शब्दका अर्थ और 
उसका स्वरूप


‘उपासना’ शब्दका अर्थ है‒पासमें बैठना, उप+आसना; उपासना दो शब्दोंसे बनता है । उपासनाका विषय कुछ भी हो सकता है‒जैसे धन, मान, लोक-परलोककी कोई भी वस्तु । जो जिस वस्तुको चाहता है, उसका मन उस वस्तुके पास रहता है, उसीकी उपासना होती है; परंतु वास्तवमें उपासना होनी चाहिये सत्य-तत्त्वकी । प्रकृतिके कार्यकी उपासना न करके परमात्माकी उपासना करनी चाहिये ।

गीतामें तीन प्रकारकी उपासना कही है‒

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये  साङ्ख्येन  योगेन   कर्मयोगेन  चापरे ॥
                                                     (१३ । २४)

‘कितने लोग ध्यानयोगके द्वारा परमात्माका साक्षात्कार करते हैं, कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा ।’ गीतामें उपासनाके तीन मार्ग हैं‒भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग । सत्य-तत्त्वकी प्राप्तिके लिये जो किया जाय उसे ‘उपासना’ कहते हैं । यह सब परमात्मा-ही-परमात्मा है । वही आदि-मध्य-अन्तमें है‒‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ (गीता ७ । ७) । (सूत्रमें मणिगणकी तरह सम्पूर्ण चराचर विश्व मुझमें ही ओत-प्रोत है ।) सत्-असत् सब कुछ परमात्मा ही है । सत्य-तत्त्वकी ऐसी उपासना भक्तियोगकी पद्धतिसे उपासना है । सांख्ययोगकी उपासना असत्‌का त्याग करके, ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।’ (गीता २ । १६) ‘असत्‌की सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं ।’ सत्‌की उपासना की जाती है । कर्मयोगमें भी सत्‌की उपासना है । भगवान्‌ने कहा है‒‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’ (२ । ४०) ‘इसमें कृत प्रयत्नका नाश नहीं होता ।’ गीताके १७वें अध्यायके दो श्लोकों  (२६-२७) में ‘सत्‌’ शब्दकी पाँच व्याख्या की है‒‘सद्भावे साधुभावे च’, ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा’, ‘यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः’ और ‘कर्म चैव तदर्थीयत् ।’ 

‘सत्‌’ कहते हैं‒सत्ताका होना, जिसका कभी नाश नहीं हो, वह सर्वत्र विद्यमान है । यह संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । परंतु उसके आश्रयसे यह संसार प्रत्यक्ष नाशवान् होनेपर भी सत्य दीखता है । गोस्वामीजीने  (मानस, बालकाण्डमें) कहा है कि‒

जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥

यह संसार सत्य दीखता तो है, पर सत्य है नहीं । प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्तिके मूलमें एक नित्य तत्त्व होता है, जिसके आश्रयसे पदार्थ उत्पन्न होता है । उसे प्रकाश देनेकी जरूरत नहीं है, वह स्वयंप्रकाश है । उसकी सत्यतासे ही सब अनित्य संसार दीख रहा है । ‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ (मु २ । २ । १०) ‘उसीके प्रकाशसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है ।’ सांख्ययोगमें असत्‌को छोड़कर सत्‌का ही चिन्तन-ध्यान होता है । असली उपासना उसी तत्त्वके लिये साधनामात्र है ।

बाल्यावस्थामें जो शरीर था, वह बदल गया । साथी, सामग्री, भाव, उद्देश्य, इन्द्रियाँ सब बदल गयीं, पर मैं तो वही हूँ, यह नहीं बदला । मैं वही हूँ, यह सत्य है । देश, काल, वस्तु, व्यक्ति सब उस सत्‌के अन्तर्गत हैं । सत्-तत्त्व ज्यों-का-त्यों है । हमने असत्‌में मान्यता कर ली है‒‘कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) (मूर्खतासे) ‘मैं कर्ता हूँ ऐसा मान लेते हैं ।’ समष्टि शक्तिसे ही समस्त क्रियाएँ हो रही हैं‒‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ (गीता ३ । २७) ऐसी स्थितिमें ‘सम्पूर्ण क्रियाएँ समष्टिकी शक्तिद्वारा हो रही हैं’ ऐसा समझकर ‘नैव किंचित् करोमीति’ (गीता ५ । ८) ‘मैं कुछ नहीं करता हूँ’किसी क्रियामें कर्त्तापन और भोक्तापनका भाव न लावें ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे