।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, रविवार
एकादशी-व्रत कल है (सबका)
उपासना शब्दका अर्थ और 
उसका स्वरूप


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब शंका होती है कि मनकी स्फुरणा नहीं मिटती । यहाँ मूलमें गलती है । हम उस स्फुरणाको मिटानेके लिये उसके कारणको न मिटाकर, उसके कार्यको मिटाना चाहते हैं । कारण, जिस मनमें स्फुरणा होती है, उस मनको हमने अपना मान लिया है । उसको अपना न मानें, वह प्रकृतिका है, उसकी सत्तासे ही स्फुरणा होती है, यह परिवर्तन हो रहा है । इस उपासनाको ‘सांख्ययोगकी उपासना’ कहते हैं ।

सत्‌-असत्‌से परे और उसमें व्याप्त भगवान् ही हैं । ‘मयि सर्वमिदं प्रोतम् ।’ (गीता ७ । ७) जैसे मिट्टीसे बननेवाले बर्तनके पहले भी मिट्टी थी, बर्तन बननेके बाद भी मिट्टी है और बिखरनेपर भी मिट्टी ही होती है । यही बात संसारके लिये भी कही जा सकती है । संसार है तब भी परमात्मा है, संसारके होनेसे पहले भी परमात्मा था एवं संसारके बिखरनेपर भी परमात्मा ही है । जैसे घड़ेका ढक्कन, उसकी आकृति, रंग सभी चीजें होनेसे उसका उपयोग भी होता है, ऐसे ही नाम-रूपमय यह संसार भी उपयोगी है । इसे परमात्माने ही तो बनाया है । यह परमात्मा ही तो है, दूसरी वस्तु आयी कहाँसे ? उससे उत्पन्न, उसीमें लीन यह संसार परमात्मा ही है ! यह उपासना ‘भक्तियोगकी उपासना’ है ।


निष्काम भाव है । यह निष्कामता स्वतःसिद्ध है । कामना बनायी हुई है । अब यह विचार करें । धनकी कामना है, मान-सम्मानकी कामना है । पहले ये थीं नहीं । बाल्यावस्थामें कंकड़-पत्थरसे खेलते थे । उस समय बहुत कम ज्ञान था । कोई विशेष कामना भी नहीं थी, परंतु अब ये कामनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं । कभी किसी वस्तुकी कामना करते हैं, कभी किसी वस्तुकी । कभी द्रव्यकी कामना होती है तो कभी मान-सम्मानकी । अतः मानना पड़ेगा कि कामनाएँ पैदा होती हैं और फिर मिट भी जाती हैं, निरन्तर रहती नहीं । लोग कहते हैं कि ‘कामना मिटती नहीं’ परंतु मैं तो कहूँगा कि ‘यह भगवान्‌की परम कृपा है कि कामना चाहे शरीरकी हो या धनकी हो, वह टिकती नहीं ।’ बाल्यावस्थामें कामना खेलकी थी, वह मिट गयी । पीछे दूसरी अनेक हुईं, वे भी मिट गयीं ! यही बात ममताकी है । वह भी जोड़ी जाती है और छोड़ी जा सकती है । किसीके साथ ममता जोड़नेपर जुड़ जाती है और तोड़नेपर टूट जाती है । बहिनोंका जन्म एक परिवारमें होता है; परस्परमें कितना ममत्व होता है, किंतु विवाह होनेपर पतिके परिवारवालोंसे सम्बन्ध जुड़ जाता है, तब पुराने परिवारवालोंसे उतनी ममता नहीं रहती । सहोदर भाईके गोद चले जानेपर उसके साथ वह ममता नहीं रहती जो उसके साथ पहले थी । अधिक क्या, अपने शरीरकी ओर देखें । बाल्यावस्थामें जब हम बच्चे थे तो हमारी माता गोदमें रखती, दूध पिलाती । उसकी कितनी अधिक ममता थी ? अब हम जवान हैं, तब वैसी ही ममता आज भी माँकी है क्या ? और जब हम वृद्ध हो जायँगे तब और भी कम नहीं हो जायगी क्या ? इससे सिद्ध है कि ममता जिन सांसारिक वस्तुओंसे करेंगे, वे रहेंगी नहीं । पर ममता करनेपर जो लोभ, पाप आदि होंगे, वे अवश्य रह जायँगे । व्यापारमें जिस तरह चीजें आती हैं और बिक जाती हैं, पर केवल हानि-लाभ हमारे पास रहता है, वैसे ही ममता करनेसे केवल पाप-ताप ही हाथ लगता है । मुनाफामें शोक-चिन्ता रहेगी । जवान लड़का मर जाता है, वह लड़का न पहले था, न अब है, फिर चिन्ता क्यों करते हैं ? चिन्ता, शोक आदि जो करते हैं बस यही ममताका मुनाफा है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे