।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
उपासना शब्दका अर्थ और 
उसका स्वरूप


(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें लोग ममताका त्याग करना नहीं चाहते हैं; प्रत्युत नित्य नयी-नयी ममता-कामना पकड़े लिये जा रहे हैं । यदि ममताका त्याग कठिन मालूम देता है तो नया सम्बन्ध जोड़ना छोड़ दें । घर छोड़कर साधु हो गये और साधु हो जानेपर चेला-चेलीसे ममताका सम्बन्ध जोड़ने लगे । ममताका सम्बन्ध उस एकके साथ जोड़ो, जो सत्य है; जिसके सिवा अपना और कोई नहीं है । संत-महात्माओंकी महिमा इस बातमें है कि वे सबसे सम्बन्ध छुड़ाकर एकमात्र परम पिता परमेश्वरमें लगा दें । वे भटकते जीवको सत्यके साथ जोड़ दें‒तेरा वह है जो यह कह रहा है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । उसीके नाते सबकी सेवा करो, आदर-सत्कार करो । स्त्री केवल पतिके नाते ही पतिके परिवारवालोंकी सेवा करती है; इसी तरह उस भगवान्‌के नाते सबकी सेवा करना है । ‘नातो नेह राम सो मनियत ।’ भगवान्‌से अपनापन कर लेना है यही ‘उपासना’ है, भगवान्‌के ‘पास बैठना’ है ।

कर्मयोगके अनुसार ममता, आसक्ति, कामनाका त्याग कर अपने ‘कर्त्तव्यके आचरणद्वारा’ उपासना की जाती है । ज्ञानयोगके अनुसार ‘परमात्माको जानकर’ उपासना की जाती है । भक्तियोगके अनुसार ‘भगवान्‌को मानकर’ उपासना की जाती है । ज्ञानयोगके द्वारा जो प्राप्ति होती है, कर्मयोगके द्वारा भी उसीकी प्राप्ति होती है ।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
                                                (गीता ५ । ५)

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।
                                              (गीता ५ । ४)

‘ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परम धाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है; क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है ।’ कर्मयोगमें भी प्रभुको मानकर उपासना होती है । संसारसे मन हटाकर चलना और भगवान्‌के पास बैठना उसकी उपासना है । थोड़ी देर जप कर लें, पाठ-पूजन कर लें‒यह असली उपासना है क्या ? असली उपासनाका तात्पर्य है, हर समय उसीमें लगन हो । जैसे परिवारमें हर समय मन लगा रहता है, वैसे ही हर समय चलते-फिरते परमात्मामें लगन होनी चाहिये । यही सच्ची उपासना है । इसकी सिद्धि अवश्य होती है । यह मनुष्य-शरीर इसीलिये मिला है । संसारके लिये मिला होता तो संसारकी सिद्धि हो जाती, किंतु सिद्धि नहीं हुई । अतः परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्य-शरीर है; उसीकी उपासना करनी चाहिये । उपासनाका प्रभाव छिपाये छिप नहीं सकता । किसीने कहा है‒

भजन करे पातालमें प्रकट होय आकाश ।
दाबी दूबी  नहिं  दबे  कस्तुरीकी  वास ॥

जिसने परमात्माकी ओर चलना प्रारम्भ कर दिया अथवा जिसने परमात्माको प्राप्त कर लिया, उसका आचरण बदल जाता है । उसके शरीरमें, बल-बुद्धिमें अन्तर आ जाता है । उसके प्रभावसे वायुमण्डल वैसा ही बन जाता है, प्रकृति स्वयंको सफल मानती है । संसारकी चीजें उसके काममें आ जायँ तो अपनेको सफल मानती हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे