।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
जहाँ भगवान्‌की कथा होती है, लीला-विग्रह आदिका वर्णन होता है वहाँ भी प्रेम, आनन्द और शान्तिकी बाढ़-सी आ जाती है, सर्वत्र परम शान्तिमय वातावरण छा जाता है । उस वर्णनको सुनकर श्रद्धालु प्रेमियोंका हृदय प्रेमसे तर हो जाता है । उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगती है, कंठ गद्‌गद हो जाते हैं, वाणी रुक जाती है और समस्त अंग पुलकित हो उठते हैं । इस प्रकार भक्त प्रेममें मतवाले हो जाते हैं । महात्मा श्रीनन्ददासजी कहते हैं‒

कृष्ण नाम जब ते मैं श्रवण सुन्यौ री आली !
भूली री  भवन  मैं  तौ  बावरी  भई  री ॥

जब उसकी कथा-वार्ता सुननेसे ही इतना असर पड़ता है, तब वह स्वयं कितना प्रेममय है‒इसका अनुभव तो परम प्रेमास्पद भगवान्‌के दर्शन किये हुए सच्चे प्रेमी भक्त ही कर सकते हैं; पर वे भी उस प्रेमका वर्णन करनेमें अपनेको असमर्थ ही पाते हैं । प्रेमका स्वरूप वर्णन करते हुए श्रीनारदजी कहते हैं‒

‘अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ।’मूकास्वादनवत् ।’गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।’
               (नारदभक्तिसूत्र ५१-५२, ५४)

प्रेमका स्वरूप अनिर्वचनीय है । गूँगेके स्वादकी भाँती उसका वर्णन नहीं हो सकता । यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेदरहित है, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरूप है ।

जो इस प्रेमके तत्त्वको जान जाता है, वह स्वयं प्रेममय बन जाता है । उसे प्रेम-ही-प्रेम दीखता है, प्रेममय भगवान्‌के सिवा उसे अन्य कोई वस्तु  नजर ही नहीं आती । यह भगवत्प्रेम वाणीका विषय नहीं है । संसारमें स्त्री, पुत्र, धन, शरीर, मान-बड़ाई आदिके प्रति जो प्रेम देखनेमें आता है, वह तो प्रेम ही नहीं है, राग है । राग और प्रेममें महान् अन्तर है । राग रजोगुणी है और प्रेम गुणातीत है, गुणोंके दायरेसे परेकी वस्तु है । रागमें अपने इन्द्रियोंकी तृप्ति और अपना स्वार्थ रहता है, प्रेममें केवल प्रेमास्पदका आनन्द, उसकी प्रसन्नता और अपने स्वार्थका सर्वथा त्याग रहता है । रागके विषय जड़ भोगरूप पदार्थ होते हैं, परंतु प्रेमके विषय साक्षात् चिन्मय परमात्मा होते हैं, जड़ पदार्थ नहीं । जीवोंसे जो प्रेम किया जाता है, उसका भी विषय चेतन ही होता है, क्योंकि प्रेम स्वयं चिन्मय है, पर जहाँ केवल जड़ शरीरकी ओर आकर्षण होकर प्रेम होता है, वह प्रेम नहीं, वह तो राग ही कहलाता है । हाँ, वह भी यदि स्वार्थत्यागपूर्वक केवल उसके हितके लिये ही किया जाता है तो प्रेम ही कहा जाता है । अवश्य ही महापुरुषोंसे जो प्रेम किया जाता है वहाँ यदि शरीरमें आकर्षण होकर प्रेम होता है तो भी, वह शरीर अन्य शरीरोंकी अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण होने तथा वहाँ अपना लौकिक स्वार्थ न होनेके कारण वह प्रेम ही माना जाता है । उसका ध्येय पारमार्थिक सत्य वस्तु है, अतः वह प्रेम शरीरको लेकर होनेपर भी दोषी नहीं है तथा भगवान्‌में जो कामना-सिद्धिके लिये प्रेम किया जाता है, वह भी यद्यपि जड़ वस्तुओंकी प्राप्तिके लिये ही है, तो भी भगवान्‌से सम्बन्ध होनेके कारण वह मुक्तिप्रद ही होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे