।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, शनिवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌ने कहा है‒‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (गीता ७ । २३)‘मेरे भक्त मुझे चाहे जिस भावसे भजें, अन्तमें वे मुझे ही प्राप्त होते हैं ।’ और उनकी कामना भी पूर्ण हो जाती है अथवा मिट जाती है । मतलब यह है कि महात्माओंका शरीर प्राकृत होनेपर भी उनसे निःस्वार्थ प्रेम करनेवालेका ध्येय चेतन है तथा भगवान्‌से सकाम प्रेम करनेवालेका ध्येय जड़ पदार्थ होनेपर भी भगवान्‌का विग्रह चेतनस्वरूप है‒यहाँ एक अंशमें कमी रहनेपर भी दोनों ही जगह चेतनका सम्बन्ध होनेसे वह प्रेम ही कहा जाता है और उससे निःसंदेह कल्याण हो जाता है । पर असली प्रेम तो वह है जो जड़तारहित, ज्ञानपूर्ण, निष्कलंक निःस्वार्थ, परमशुद्ध और केवल प्रेमके लिये ही होता है । यह प्रेम रागकी समाप्ति होनेके बाद जाग्रत्‌ होता है और वैराग्यकी ऊँची-से-ऊँची स्थिति होनेपर आरम्भ होता है ।

वह प्रेम रसमय, आनन्दमय, प्रकाशमय, त्यागरूप, दिव्य और परम शान्तिरूप है । उसमें दुःख, विक्षेप, जलन, चिन्ता, उद्वेग, भय आदिका लेश भी नहीं है, प्रेम और भगवान् वस्तुतः दो नहीं, एकरूप ही हैं । ऐसा होनेपर भी भगवान्‌के दर्शन होनेपर प्रेम हो ही जाय, यह सर्वत्र अबाधित नियम नहीं है, पर प्रेम होनेपर तो भगवान्‌ मिल ही जाते हैं । इसलिये प्रेमकी कीमत भगवान् भी नहीं हैं, बल्कि भगवान्‌की ही कीमत प्रेम है; अतः प्रेम भगवान्‌से भी बढ़कर है । इसलिये दिव्य प्रेमको प्राप्त किये हुए भगवद्भक्त भगवान्‌के दर्शनोंकी भी परवा नहीं करते, बल्कि भगवान् ही उन भक्तोंकी चाह किया करते हैं ।

प्रेम बड़ी ही अलौकिक वस्तु है । वह द्वैत-अद्वैत, भेद-अभेद, सबसे निराला, विलक्षण अलौकिक तत्त्व है । प्रेम और आनन्द वस्तुतः एक ही वस्तु हैं । क्योंकि प्रेम होनेपर ही आनन्द होता है और जहाँ आनन्द होता है, वहीं प्रेम होता है ।

सबकी एकता

सत्-रूप परमात्माका जो होनापना है, जो सामान्यरूपसे सर्वत्र सर्वदा परिपूर्ण है, वही कृपापरवश हो भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये श्रीविग्रहरूपसे प्रकट होता है और जो सामान्य चिन्मय ज्ञानस्वरूप परमात्मा है वही श्रीविग्रहके प्रकाशरूपसे प्रकट होता है तथा जो निरतिशय आनन्दघन परमात्मा है, वही श्रीविग्रहमें प्रेमरूपसे प्रकट होता है । जैसे सत् चित् आनन्द‒ये तीनों शब्दतः अलग-अलग होनेपर भी वस्तुतः एक ही हैं और परमात्माके स्वरूप ही हैं, उसके कोई विशेषण या उपाधि नहीं, उसी तरह साकार परमात्मा उसका प्रकाश तथा प्रेम भी कोई भिन्न-भिन्न चीजें नहीं हैं ।

प्रेम हरीको रूप है, त्यों हरि प्रेम स्वरूप ।
एक होय दोमें लसै, ज्यों सूरज अरु धूप ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे