।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, रविवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
तत्त्व-विवेचन

इस प्रकार परमात्माके सच्चिदानन्दघन निर्गुण-निराकार, अस्ति-भाति-प्रियरूप सगुण-निराकार, दिव्य विग्रह, प्रकाश और प्रेममय सगुण-साकार स्वरूपका तथा उन सबकी एकताका कुछ संकेत कराया गया । अब इनकी एकताके प्रतिपादक गीताके निम्न श्लोककी कुछ व्याख्या की जाती है‒

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं   स्वामधिष्ठाय   सम्भवाम्यात्ममायया ॥
                                                            (४ । ६)

भगवान् कहते हैं‒‘मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ ।’

इस श्लोकमें भगवान्‌ने छः बातें कही हैं‒तीन अपने स्वरूपके सम्बन्धमें, दो प्रकृतिके सम्बन्धमें और एक अवतार लेनेके सम्बन्धमें । ये क्रमशः इस प्रकार हैं‒

मैं (१) अजन्मा होते हुए भी, (२) अविनाशीस्वरूप होते हुए भी, (३) समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी, (४) अपनी प्रकृतिको अधीन करके, (५) अपनी योग-मायासे, (६) प्रकट होता हूँ ।

इन छहोंमेंसेअजन्मा’ औरअविनाशी’ होते हुए भी‒ये दो तो निर्गुण-निराकार तथा ‘समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी’यह सगुण-निराकारका एवंअपनी प्रकृतिको अधीन करके’यह भगवान्‌के श्रीविग्रहके तत्त्वका द्योतक हैं । ‘प्रकट होता हूँ’इससे अपने साकाररूपसे प्रकट होनेकी बात कही है । ऐसे साकाररूपसे प्रकट होनेपर भी अभक्त उन्हें नहीं जान पाते; क्योंकि भगवान् योगमायासमावृत रहते हैं‒यह बात भगवान्‌ने ‘अपनी योगमायासे’इस पदके द्वारा व्यक्त की है ।

भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित रहते हुए ही जन्म लेते हैं अर्थात् प्रकट होते हैं । जन्म लेनेपर भी भगवान्‌केअज’पनेमें कभी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं होती । भगवान् अव्ययात्मा यानी परिवर्तन, क्षय, विनाश आदि विकारोंसे सर्वथा रहित रहते हुए ही लोगोंके सामनेसे अन्तर्धान हो जाते हैं; किंतु अन्तर्धान हो जानेपर भी वे कहीं नष्ट नहीं हो जाते । इसी प्रकार प्राणिमात्रके एकमात्र महान् शासक‒ईश्वर रहते हुए ही वे किसी देशविशेषमें माता-पिताकी आज्ञाका पालन करनेवाले नाम-रूपविशिष्ट बालक बन जाते हैं; परंतु बालक बन जानेपर भी उनके शासकत्वमें कोई भी कमी नहीं आती । वे ही भगवान् अपनी प्रकृतिको अधीन करके प्रकट होते हैं; किन्तु इस प्रकार प्रकट होनेपर भी वे प्रकृतिके परतन्त्र नहीं हो जाते, बल्कि प्रकृति तो उनके अनुकूल चलनेवाली उनकी दासी ही रहती है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे