।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भोक्तारं    यज्ञतपसां    सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
                                                   (गीता ५ । २९)

यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु   सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
                                              (गीता १० । ३)

यहाँ सर्वलोकमहेश्वर’ रूपके जाननेवालेको शान्तिकी प्राप्ति बतलायी है और उसे ‘असम्मूढ’ कहा गया है ।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं  भावमजानन्तो    मम   भूतमहेश्वरम् ॥
                                              (गीता ९ । ११)

यहाँ भूतमहेश्वर’ रूपको न जाननेवालेको मूढ बतलाया है । यहाँ इस चौथे अध्यायके छठे श्लोकमें वर्णित प्रकृति और योगमाया‒ये दो अलग-अलग तत्त्व हैं । प्रकृति परमात्माकी एक नित्य दिव्य शक्ति है और उस प्रकृतिके ही एक अविद्यामय अंशको अज्ञान या माया कहते हैं जो कि प्रकृतिके कार्यरूप तीनों गुणोंवाली है । ज्ञानमार्गी इस प्रकृतिको विद्या कहते हैं और इस ब्रह्मविद्या‒ अध्यात्मविद्या (गीता १० । ३२) का अवलम्बन लेकर अविद्याका नाश करके परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा भक्तजन इसे भगवान्‌की भक्ति‒दैवी सम्पत्ति कहते हैं, जिसका आश्रय लेकर वे भगवान्‌के दर्शन करते हैं । वही भगवान्‌की ओर ले जानेवाली भगवान्‌की दैवी प्रकृति है ।

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा  भूतादिमव्ययम् ॥
                                                  (गीता ९ । १३)

इसमें परमात्माकी दैवी प्रकृतिका आश्रय लेनेवालोंको महात्मा बतलाया है ।

दैवी योगमाया तो बन्धनकारक, दुस्तर, मोहित करनेवाली और परमात्माकी ओरसे दूर ले जानेवाली है । इसे ही अविद्या कहते हैं ।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः      सर्वमिदं   जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमब्ययम् ॥
दैवी ह्येषा  गुणमयी   मम  माया  दुरत्यया ।
मामेव ये  प्रपद्यन्ते   मायामेतां  तरन्ति  ते ॥
                                               (गीता ७ । १३-१४)

इस मायाका आश्रय लेनेवाले लोग उस अव्यय परमात्माको नहीं जान पाते ।

गीतामें खोज करनेपर यह बात सुस्पष्ट हो जाती है कि यह माया गुणमयी है । गुण मायासे उत्पन्न नहीं है । इनको तो भगवान्‌ने प्रकृतिसे उत्पन्न बतलाया है । यथा‒

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (३ । ५)
विकारांश्च गुणांशैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ (१३ । १९)
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूङ्क्ते प्रकृतिजागणान् । (१३ । २१)
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । (१४ । ५)
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः । (१८ । ४०)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे