।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌ने मायाको गुणमयी बतलाया है, न कि प्रकृतिको । मयट्’ प्रत्यय विकारार्थमें भी होता है, इसलिये यहाँ मायाको गुणोंका विकार माना है । प्रकृति तो गुणोंसे क्या मायासे भी परेकी वस्तु है । इसीलिये भगवान् प्रकृतिको अधीन करके लीला-विग्रह धारण करते हुए भी मायिक या गुणमय नहीं हो जाते । वे तो सदा सर्वथा दिव्य अमायिक गुणातीत ही स्थित रहते हैं, पर मायाका पर्दा लेकर प्रकट होनेके कारण साधारण जीव उन्हें नहीं जान पाते और भगवान्‌को साधारण मनुष्य ही मानने लगते हैं । (गीता ७ । २४; ९ । ११)

इस प्रकार माया और प्रकृति‒ये दो अलग-अलग तत्त्व हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है ।

यहाँ यह बात समझनेकी है कि सगुण-साकार परमात्मा अज, अव्यय और गुणातीत हैं । भगवान्‌का दिव्य विग्रह प्रकृतिजन्य तीनों गुणोंके अंदर नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः       सर्वमिदं  जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
                                                           (७ । १३)

गुणोंके कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस‒इन तीनों प्रकारके भावोंसे यह सब संसार‒प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिये इन तीनों गुणोंसे परे मुझ अविनाशी परमात्माको नहीं जानता ।’

सगुण-साकार भगवान् इन तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे हैं । जब उनकी उपासना करनेसे ही मनुष्य गुणातीत हो जाता है, तब फिर वे स्वयं तीनों गुणोंसे परे हैं‒इसमें तो संदेह ही क्या है । भगवान् कहते हैं‒

मां च योऽव्यभिचारेण   भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
                                                     (१४ । २६)

जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है ।’

यदि साकार भगवान् तीनों गुणोंके अंदर होते तो उनकी उपासना करनेसे मनुष्य गुणातीत कैसे हो सकता । अतः भगवान्‌का दिव्य विग्रह मायिक नहीं है । यदि मायिक होता तो आत्मनिष्ठ ज्ञानीजनोंका उसमें आकर्षण क्योंकर होता । तत्त्वज्ञानी जनकजीका भी मन भगवान् श्रीराम-लक्ष्मणके स्वरूपको देखकर आकर्षित हो जाता है । गोस्वामी तुलसीदासजीने उनकी स्थितिका वर्णन करते हुए कहा है‒

मूरति मधुर  मनोहर  देखी ।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥
सहज  बिराग   रूप  मनु  मोरा ।
थकित होत  जिमि चंद चकोरा ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा ।
बरबस ब्रह्म सुखह  मन  त्यागा ॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू ।
पुलक गात उर  अधिक  उछाहू ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे